Tuesday 28 April 2020

ठहरी हुई जिंदगी




"ये लो चाय, हम जा रहे है।"   पतिदेव की प्रातः कालीन बेला  की मधुर  नींद एक झटके में ही खुल गई बोले - "  कहां जा रही हो ?" हमने उत्तर दिया - " बाजार सब्जी लेने ....। " पागल हो गई हो !  मनु - गब्बू   (बेटे) को भेज दो वे ले आयेगे। हमने बात अनसुनी की और निकल गए। हम जानते है कि बेटों को जितना लिख कर देंगे वे उतना ही लायेगे जब की हम  बाजार में क्या - क्या है और क्या  हमारी जरूरत है उस हिसाब से लायेगे, बहुत बार जो हमे भी याद नहीं होता दुकान में देखकर याद आ जाता  है। दूसरी बात लॉक डाउन के दौरान  अपने ही घर में नजरबंद हम उस  पिंजरे के पंछी की मानिंद हो गए थे जो रोज सुबह - शाम  छत पर जा कर खुला आकाश देखता तो अवश्य था किन्तु उड़ नहीं पा रहा था। तीसरी  बात जो हम  जानना चाह रहे थे कि बाजार में लॉक डाउन का कितना असर है।     सेंट्रल एवेन्यू  चांदनी मेट्रो  वाला रास्ता लगभग सुनसान था। सफाईकर्मी रास्ते की सफाई करते हुए दिखाई दे रहे। बहू बाजार की तरफ आगे बढ़े तो फुटपाथ पर डेरा जमाए लोग दिखे सभी एक निश्चित दूरी बनाए, मास्क लगाए बात कर रहे थे यहां तक कि महिलाएं भी नियम का पालन कर रही थी।  रास्ते में जो भी स्त्री - पुरुष  दिख रहे थे।  वो अपने हाथों में घर की आवश्यकतानुसार वस्तुओं को लिए ही दिखे। सब्जी वाले इक्का - दुक्का ही मास्क लगाए दिखे।   एक सब्जी वाले से हमने सब्जी लेनी शुरू  की, देखा उसकी पत्नी सब्जी देने में मदद कर रही थी।  हमने उससे पूछा कि   -  तुम लोग मास्क नहीं लगाए हो तुम्हे कोरो ना से डर नहीं लगता? वो इससे पहले जवाब देती तभी थोड़ी दूर पर खड़ी महिला बोल पड़ी, " ऊपर वाले पर हमको  भरोसा है, कब तक डर कर हम लोग  जियेगे ।  सब्जी वाली ने भी मधुर मुस्कान के साथ उस महिला की बात का समर्थन किया । बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए हमने पूछा, - कितने बजे सब्जी    लेंने जाती हो, उसने जवाब दिया तीन बजे रात में हम लोग सियालदाह जाते है सब्जी लाने के लिए। हमने आश्चर्यमिश्रित स्वर में दुबारा प्रश्न किया इतनी जल्दी क्यों ? इस पर उसने बताया बहुत भींड होती है इसलिए। मेरा अब अगला प्रश्न था - यहां बाजार  में कितने बजे तक रहती हो ? उसका जवाब था साढ़े बारह बजे तक। ये सुनकर हमें विस्मय हुआ क्योंकि बाजार सबेरे 6 बजे से नौ बजे तक ही खुले रहने की घोषणा हुई है।  अभी हम उससे उसके  घर - परिवार  के बारे में बात कर ही रहे थे  कि तभी बड़े सुपुत्र ने  आकर सब्जी का बैग उठा लिया और बोला - " मम्मी आपको इस तरह बाजार नहीं आना चाहिए था ।"   उसकी इस चिंता पर हमने सवाल किया क्यों ? तुमको सुबह - सुबह तुम्हारे पापा ने दौड़ा दिया न। हमने चोकोस खरीदते हुए कहा अगर हम नहीं आते तो ये तुम्हारे लिए कौन खरीदता, घर में कपूर खत्म हो गया था उसकी तो हमें याद ही नहीं थी और तो और कड़ुआ नीम तुम्हे कभी मिलता ही नहीं था।"  बड़े दिनों के बाद आज   हमें  बाजार में  फूल दिखाई दिए जबकि नवरात्रि में भी कहीं फूल नहीं दिख रहे थे।   अगर हम नहीं आते तो तुम बताते ही नहीं कि फूल मिल रहे है, हमने शिकायती लहजे में उससे कहा। किराने की दुकान पर जवान - वृद्ध पंक्तियों में खड़े थे। सभी की जुबान पर कोरो ना पुराण ही था। एक युवक दूसरे से कह रहा था घर की जरूरतों के लिए तो निकलना ही पड़ेगा, डर कर  कब तक घर में बैठे रहेंगे। इस पर दूसरे ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहां " एक दिन तो सबको ही मरना है अगर कोरो ना से मरना लिखा है तो उसी से मरेंगे। पंक्ति में खड़े एक महाशय ने राय दी कि धरती पर बहुत बोझ हो गया कुछ हल्की हो जाएगी। उन सब की बातें सुनकर अच्छा लगा क्योंकि सभी सकारात्मक ही सोच रहे थे एवम् मौत की क्रूरता जिंदगी की गंभीरता पर अश्रु नहीं बहा रहे थे।  हमने अपनी इच्छानुसार समस्त जरूरत वाली वस्तुओं को लिया और आराम से बेटे की बाइक पर बैठकर घर आ गए।  मन बहुत खुश था क्योंकि जो जिंदगी ठहरी हुई प्रतीत हो रही थी वो बाहर निकलने  से  एक उछाह भर रही थी । और जो दुनियां  कोरो ना वायरस के चलते  डरी हुई, थमी हुई नजर आ रही थी उसमे अभी भी जीवंतता दिख रही थी । परन्तु कोरो ना अपने रौद्र रूप में  हम सबको  इस क़दर भयभीत किए हुए है जिसकी वजह से स्वाभाविक जिंदगी से दूर  हम सभी अपनी अपनी सांसों को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे है। हां एक बात और बीच बीच में मोदी जी द्वारा दिए हुए टास्क बोझिलता को दूर करने में काफी मदद गार साबित हो रहे है। 

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