वाह्य आडम्बर या प्रतिष्ठा का परचम
दुर्गापूजा के आते ही पूरे बंगाल में एक अजीब सी मदहोशी छा जाती है,दिखायी देती है तो सिर्फ और सिर्फ चारो तरफ गहमा-गहमी, बाजारों में भीड़ ,सड़कों पर जाम ,पार्को में तैयार होते पंडाल। जिधर भी देखो हर कोई व्यस्त नजर आता है।पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा का आकर्षण है ही इतना जबरदस्त कि दूर -दूर से देशी -विदेशी लोग खिंचे चले आते है उन्हें ज्यादा से ज्यादा तादाद में आकर्षित करने के लिए महीनो पहले से [पंडालों मूर्तियों की तैयारी आरम्भ हो जाती है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक इमारतों , मंदिरों एवम ज्वलंत विषयों पर पंडालों का निर्माण किया जाता है । रौशनी की सज्जा भी ऐसी होती है की बस देखने वाला दांतों तले उँगलियाँ दबा ले प्रत्येक पंडाल अपने आप में सारे संसार की सुन्दरता को समेटे हुए दिखेगा । उत्कृष्ट कारीगरी और कल्पना का अनूठा संगम वर्ष में एक बार ही दिखाई देता है । बड़े -बड़े इनाम सर्वश्रेष्ठ पंडाल, मूर्ति ,विद्युत् सज्जा आदि के लिए रखे जाते है । इन्हें पाने के लिए आयोजक ,प्रायोजक और कुछ बड़े -बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा भी दांव पर लग जाती है ।अपनी प्रतिष्ठा के परचम को सबसे ऊपर लहराने के लिए करोड़ों रूपये की लागत वाले पंडाल बनवाये जाते है ।पूरा बंगाल दुल्हन की तरह से सजाया जाता है । पाँच - छह दिन कोलकाता में रात भी दिन नजर आती है । उस समय कोलकता को देखकर लगता ही नहीं की ये वही कोलकता है जँहा दिन के उजाले में छोटे -छोटे बच्चें गाड़ियों की सफाई करते है, स्टेशनों पर पानी की खाली बोतलों को पाने की लालसा में एक दूसरे से छीना - झपटी करते है। दफ्तरों में चाय पहुचातें है ,होटलों में चाय के कप धोतें है। और रात होतें ही थके -मांदे अपनी माँ के साथ चिपक कर सो जाते है ।
सूरज की पहली किरणे सोये हुए लोगो के बीच में जब अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है तब फुट पर सोने वाले लोग अलसाये से शौचालय के आभाव में सड़कों के किनारे, मेट्रो स्टेशन की दीवार के पास ,फ्लाई ओवर के नीचें मलमूत्र त्याग करते है । किन्तु अगर किसी आयोजक से पूछा जाये कि "आप पंडालों के ऊपर इतनी बड़ी धन राशी खर्च करते है ये सोचकर की ये पंडाल बंगाल की संस्कृति की छाप लोगो के दिलों में स्थायी रूप से छोड़ेंगे और वे बंगाल का नाम आते ही यंहा की दुर्गापूजा के बारे में याद कर अभिभूत हो जायेंगे" तो वे तुरंत बात काटते हुए कहेंगे की " क्यों नहीं, बंगाल की दुर्गापूजा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है ,इसीलिए लोग पाँच -छह दिन रात- रात जाग कर ,लंबी लाइनों में घंटो खड़े होकर एक -एक पंडाल की सुन्दरता निहारते है। " लेकिन आयोजक ये नहीं समझ पाते कि वही दर्शक दिन के उजाले में फुटपाथ पर सोते हुए गरीबों को देखकर , सड़क के किनारे मल-मूत्र की गंध सूंघकर ,कचरों के ढेर के पास से गुजर कर ये जरुर सोचते है की काश इस दिखावे के ऊपर इतनी धनराशी न खर्च कर अगर सफाई के प्रति थोडा भी ध्यान दिया जाता तो इस त्यौहार का मजा ही कुछ और होता । यही नहीं जब बंगाल के गाँवो की बदतर हालत के बारे में सुना या जाना जाता है तो भी किसी को बंगाल के प्रति सहानुभूती नहीं होती वरन ये सोचा जाता है की अगर इस शो -बिजनिस पर थोड़ी सी भी कटौती कर अगर प्रत्येक पंडाल के आयोजक छोटे- छोटे गाँव की उन्नति को अपना उद्देश्य बना ले और वंहा की आवश्यकता के अनुरूप स्कूल , कालेज,अस्पताल ट्यूबवेल ,रोजगार की शक्ति यथाशक्ति मुहैया करवा दे तो बंगाल प्रगति के मार्ग पर काफी आगे निकल जाये । लेकिन सवाल ये है की क्या विभिन्न पंडाल समितियां इस दिशा में सोचेंगी । क्या वे अपनी सोच में क्रान्तिकारी परिवर्तन लायेंगी और इन दिखावों पर किये जाने वाले खर्च में से एक हिस्सा स्थायी ठोस योजना को अंजाम देने के लिए रख सके गा मात्र ये सोचकर की आडम्बर पर खर्च करना बेवकूफी है जबकि जरुरतमंदो के हित में खर्च करना समाज को सुख और समृद्धि देने वाला है । यही नहीं जरुरतमंदो की सेवा करना सबसे अच्छा कार्य है हमारे पूर्वजों ने भी ये कहा है की " सेवा परमों धर्मं " ।
फुटपाथ ही बसेरा है . |
इन बच्चों के लिए सड़क के किनारे ही शौचालय होते है .होश सम्हालते ही
दो समय के लिए रोटी कमाना इनका उद्देश्य .
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आज भले ही आयोजक ये न समझ सके लेकिन आने वाले दिनों में ये तय है की वे इस पर विचार कर झूंठी चकाचौंध से बाहर निकल कर सादगी की तरफ उन्मुख अवश्य होंगे । यही प्रकति का नियम है और इस परिवर्तन शील समाज की मांग भी ।
कोलकता के भव्य पंडाल
विद्युत् सज्जा
दुर्गा देवी की प्रभावशाली जीवंत प्रतिमाये।
मस्ती का मिजाज,उल्लास -आनंद के पल
नवरात्र की षष्ठी से लेकर दशमी तक कोलकता बड़े बुजुर्गो से लेकर बच्चों तक के लिए आकर्षण का केंद्र रहता ।
नशाखोरो के लिए लाइसेंस ,लैला मजनुओ के लिए एक साथ घुमने का समय .हुडदंग और फूहड़पन की खुली छूट । रात में कितने बजे भी घर पहुंचे कोई जाँच पड़ताल नहीं ।