Saturday 8 September 2012

निज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति को मूल


कुछ वर्षों पहले की बात है ,हमे 'द वेक ' हिंदी पत्रिका के लिए साक्षात्कार लेना था ,सोचा क्यों न इस बार किसी  सांसद  महिला का साक्षात्कार लिया जाये । ये सोचकर हमने एक जानी मानी सांसद जो अभी भूतपूर्व है को फोन लगाया और उन्हें बताया की हमें आपका साक्षात्कार 'द वेक ' के लिए लेना है । जैसा कि अक्सर होता है 'द वेक' को लोग अंग्रेजी पत्रिका  ' द वीक 'समझ लेते है ,उन्होंने भी यही समझा और खुश होकर अपनी सहमति दे दी । हमने उनकी गलतफहमी को दूर करते हुए बताया की ये 'द वीक ' नही बल्कि 'द वेक ' हिंदी मासिक पत्रिका है जो कुछ वर्षो से चल रही है।ये सुनकर उनको इतना ख़राब लगा की उन्होंने बिना रिसीवर रखे ही अपने पास खड़े किसी व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा कि " अरे यार ये तो हिंदी है "।  ये सुनते ही हमने फोन रख दिया और निश्चय किया की भविष्य में हम उनका साक्षात्कार कभी नहीं लेंगे । ये निश्चय इस लिए नहीं किया था की उन्हें हिंदी नहीं आती थी ,वरन वे हिंदी भाषी क्षेत्र से ही थी लेकिन उनका अंग्रेजी के प्रति जुडाव ने मेरा मन खट्टा कर दिया । ऐसे एक -दो नहीं ,सैकड़ो उदाहरण है जब लोग बड़े गर्व से कहते है ," हमारे बच्चे हिंदी नहीं जानते , इनसे बात आप अंग्रेजी में करिए " या मेरो बच्चों को हिंदी गिनती नहीं आती या मेरे घर में अंग्रेजी ही बोली जाती है   या  माफ़ करियेगा हिंदी पत्रिका हमारे घर में नहीं आती आदि । इस प्रकार की बाते करने वाले अधिकतर बड़े -बड़े ओहदों पर बैठे लोग होते है या कुछ सत्ताधारी   जो   मातृभाषा में बात करना अपमान  समझते है और अपनी इस विकृत सोच का परिचय ये कहकर देते है की अगर वे अपनी क्षेत्रीय भाषा में बात करेंगे तो उनपर क्षेत्रवाद का आरोप लगेगा । यही नहीं वे अंग्रेजी बोलकर ये सफाई देते है की इस भाषा को समझने  वालो की तादाद काफी है भारत के भी बहुत से राज्य अंग्रेजी ही समझते है इसलिए अंग्रेजी  बोलकर वे अपनी बात काफी दूर तक पहुंचा सकते है ।इसी व्याख्या की तर्ज पर अंग्रेजी को सविंधान बनाने वालो ने हिंदी की सहयोगी भाषा करार दे दिया था  और हिंदी जिसे सविधान  में  ऑफिशियल लेंग्वेज तो बताया गया किन्तु बट लगाकर साथ ही ये भी लिख दिया की जब तक  समस्त राज्यों का समर्थन न मिल जाये तब तक हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित न किया जाये  परिणाम जिस हिंदी को आजादी के बाद पन्द्रह वर्ष का समय दिया गया था  ये सोचकर की इस दौरान हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया जायेगा । वो तमिल ,बंगाल ,कर्नाटक आदि अनेक राज्यों के विरोध का शिकार बन गयी । डी .एम के नेता सी .ऍन .अन्नादुराई ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर हिंदी का विरोध किया और कहा की इसे राष्ट्र भाषा न बनाया जाये .इसी तर्ज पर कुछ और राज्यों के नेताओ ने विरोध किया । पन्द्रह वर्ष की समय अवधि ख़तम होते -होते ये फैसला ले लिया गया की जो राज्य हिंदी नहीं जानते वे अपनी चिट्ठी अंग्रेजी में लिख सकते है और सरकारी काम अंग्रेजी में करने के लिए स्वतन्त्र है । ये उन राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया की   जब तक वे हिंदी को मान्यता नहीं देंगे तब तक हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दिया जायेगा ।बस यही से आरम्भ होता है अंग्रेजी का वर्चस्व  । देखते -देखते अंग्रेजी लोगो के उच्च स्तर की परिभाषा बन गयी बड़े -बड़े रोजगार अंग्रेजी के रहमोकरम पर लोगो को मिलने लगे । डाक्टरी ,इंजीनियरी ,एम .बी .ऐ,एम सी ऐ आदि की पुस्तकें अंग्रेजी में ही प्रकाशित होती है और इनकी शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी है ।  आई .एस की परीक्षा जिसे बीच   में अंग्रेजी के चंगुल से मुक्ति मिल गयी थी अब फिर से तीस नंबर का पेपर अनिवार्य कर दिया गया ।आम आदमी की लाचारी से किसी को कोई मतलब नहीं रह गया की  उस  बेचारे  को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च नयायालय में आने वाले अपने मुकदमे के फैसले को समझने के लिए   आज भी अपने वकील के पास जाना पड़ता है । वो अपने बारे में सुनाये गए फैसले को भी नहीं समझ  सकता क्योकि वे अंग्रेजी में दिए गए है ।अब ऐसे में आम आदमी क्या करेगा ,एक समय खायेगा ,जमीन ,जेवर ,घर गिरवी रखेगा किन्तु बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ायेगा । अधिकतर गाँव में हिंदी स्कूलों की स्थिति इतनी बदतर है कि पहले तो   शिक्षक स्कूल पहुचते ही नहीं अगर पहुँच गए तो पढ़ाने  के समय बच्चों के लिए दुपहर का खाना बनाएगे ।  कुछ जगह तो शिक्षको ने , अगर उनके स्कूल उनके निवासस्थान से काफी दूर है तो वे अपनी सुविधानुसार  वहा के स्थानीय व्यक्ति को कुछ रुपयों पर अपनी जगह  पढ़ाने  के लिए रख देते है और खुद वहा के क्लर्क या चपरासी को लालच देकर इस निर्देश के साथ छोड़ देते है की अगर जाँच अधिकारी अचानक स्कूल आ जाये तो वे उन्हें समय रहते सूचित कर दे जिससे वे अपनी पोथी पत्रा लेकर स्कूल में हाजिर हो जाये । सवाल उठता है की ऐसा क्यों है ,इन पर कोई नकेल क्यों नहीं कसता । तो इसके पीछे भी गुलाम मानसिकता जिम्मेदार है  क्योंकि  प्रशासन ,शासन किसी को भी चिंता नहीं है   इन स्कूलों की पढाई की । उनके अनुसार ये स्कूल खाना पूर्ति के लिए है ,पढाई तो अंग्रेजी स्कूल में होती है । बस यही से आरम्भ होता है भाषा के पतन का ,उस भाषा का जो आपको  आपकी जमीं से जोड़ेगी ,अपना साहित्य और संस्कृति समझाएगी ,बताएगी साथ ही विदेशों में आपकी पहचान बनेगी । लेकिन गुलाम मानसिकता वालों के पास समय कहा है ये देखने का । वे ये भी नहीं  सोचना  चाहते की अभी  हाल में हुए ओलम्पिक खेलो में चीन के विजेताओं ने  अंग्रेजी भाषा का प्रदर्शन नहीं किया अपितु अपने देश के गौरव चीनी भाषा को मान  दिया । ये उदाहरण एक अकेले चीन का नहीं है ,वरन अनेक देशो का है जिनकी पहचान उनकी अपनी भाषा है किन्तु भारत के शासक ये बात कब समझेगे ,कब अपनी भाषा को मान  देंगे ।कब वे गुलाम मानसिकता से बाहर निकलेंगे ।इस पर अभी भी प्रश्नचिह्न लगा हुआ है ।
बी बी सी के लोकप्रिय सवांददाता मार्क टुली के शब्दों में .........
When Mark Tully, a BBC reporter retired from the service, he was interviewed on BBC. The interviewer asked him that since he worked for so many years in Bharat, did he find any difference there after independence. He answered. “Though the 'English Rule' is departed from Bharat, the 'Anglicised Rule' is still alive. Nobody from his state can speak fluently in his own mother tongue; because there is no insistence on Nationalistic concept. When the German or Russian leaders go abroad, they interact in their own language. I feel that the whole calculation has gone wrong forBharat as there is lack of Nationalistic concept.” Today whatever adverse is happening in the country is because of the lack of nationalism. Many future generations will have to face the ill effects of this. The rulers just want to hold on to power, not bothering whether the country survives or not!

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