Sunday 26 February 2012

मम्मा मै जा नहीं रही हूँ ,

मम्मा मै जा नहीं रही हूँ , 
मेरी भांजी की विदाई का समय था  ,हम सभी अपनी भावनाओ को नियंत्रण करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे .वही वो चट्टान की तरह से मजबूत खड़ी मुस्करा रही थी .उसकी माँ बेटी की विदाई को होता देख फफक -फफक कर रोने लगी .बेटी ने अपनी माँ को सम्हालते हुए कहा 'मम्मा मै जा नहीं रही हूँ ,बस पाँच दिन की ही तो बात है .मै आ रही हूँ'. उसके पिता जब उसके पास आये तो वो पिता के सीने से लगकर रोई नहीं वरन अपने पिता को धैर्य बंधाते हुए बोली .'पापा प्लीज आप रोना मत ,मै आपसे दूर नहीं जा रही हूँ, मै आपके पास हूँ ,जिस दिन आपको मेरी जरुरत हो एक फोन कर  देना मै आ जाउंगी'.
उसकी बात सुनकर हम जितने रिश्तेदार थे सब सोच रहे थे ये पागल हो गयी है क्या. .इसकी विदाई हो रही है और ये रोने की बजाय हंस रही है.इसे ये समझ में नहीं आ रहा है की ये अपने माँ- बाप से हमेशा के लिए दूर जा रही है.आज के बाद इसके ऊपर इसके माता -पिता का नहीं वरन उसकी ससुराल वालोका अधिकार होगा.हम सभी  रिश्तेदारों  के  मन में उथल -पुथल चल रही थी उसकी इस बचकानी हरकत पर.लेकिन फिर भी मन ने कहा की अभी उसकी आँखों में आंसू नहीं है ,जब गाड़ी में बैठेगी और परिवार वालो को आँखों में आंसू भरे हुए खड़ा   देखेगी तो अपने आप भावुक हो जाएगी. लेकिन उसने गाड़ी में बैठकर   बाय -बाय किया ,प्यारी सी मुस्कराहट  फेकी  और चली गयी. वो तो चली गयी  लेकिन आज की नारी का बदला हुआ   सशक्त स्वरुप छोड़ गयी .वो स्वरूप जिसमे नारी अबला नहीं सबला है .उसकी  आर्थिक निर्भरता ने उसे रोना नहीं बल्कि जिंदगी की चुनौतियों का सामना करना सिखाया है. हम लोगो ने जब  उससे पूछा     की वो रो क्यों नहीं रही है तो उसने जवाब दिया की मै सात सालो से बाहर हूँ  मुझे जितना  रोना था मै रो चुकी अब मै  क्यों  रोउंगी.  उसकी बात भी सही थी .हॉस्टल में   रेगिंग  के दौरान रोना क्या कम था .फिर  उत्तराखंड के द्वार हाट में सरकारी  इंजीनियरिंग कालेज की  असिस्टेंट प्रोफेस्सर के रूप में   उसकी पोस्टिंग का होना अपने आप में काफी बड़ी चुनौती थी .द्वारहाट वैसे ही जंगल है ,ऊपर से वहा शाम के छः बजे के बाद कोई घर से बाहर नहीं निकलता था  .क्यों की वहा के लोगो का मानना है की रात में वहा भूत प्रेत घूमते है .रात में सियारों का घूमना और आवाजे निकालना आम बात है.ऊपर से कालेज वालो ने उसे आवास भी निचले तल पर दिया वो भी ऐसी जगह जंहा अगल -बगल में कोई रहता ही नहीं था. न जाने कितनी राते उसने उस आवास में रो-रो के काटी थी.
 ऐसी ही एक घटना हमें  याद है जब   खड़गपुर आई- आई टी  द्वारा  उसे सेमिनार में बुलाया गया .  सेमिनार ख़त्म करजब  स्टेशन पर पहुंची तो पता चला की कोलकाता जाने वाली  रेल अभी -अभी निकल गयी .उसने वापस न जाकर  वही  स्टेशन  पर इंतजार किया और  दूसरी   रेल पकड कर वो कोलकाता के लिए रवाना हुयी  किन्तु  उसे ये देखकर बड़ी हैरानी हुयी की उस रेल में इक्का -दुक्का ही लोग थे .वो लेडिज केबिन में जा कर बैठ गयी .चुकी काफी थकी हुयी थी तो नींद आना  स्वाभाविक  था अभी वो झपकी ठीक से ले भी नहीं  पाई  थी  की तीन चार  जी आर पी एफ के जवान आकर उसके केबिन में बैठ गए .डर और घबराहट  से वो उठकर बैठ गयी. ये ठीक था की वो शरीफ लोग थे उसे कोलकाता पहुचने में तकलीफ नहीं हुयी .लेकिन इस दौरान वो किस मनोस्थिति से गुजरी होगी  एक -एक मिनट उसे घंटो से भी जयादा बड़ा लग रहा होगा इसका  अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. इस तरह के एक- दो नहीं वरन सात सालो में उसने न जाने कितनी चुनौतियों का सामना किया होगा  . पग -पग पर एक नया इम्तहान दिया होगा जिसने उसे  इतना मजबूत और  आत्मविश्वासी बना दिया की उसके लिए  ससुराल जाना ,विदाई होना जैसे अवसर बहुत मामूली बन गए .साथ ही उसकी  आर्थिक निर्भरता ने उसे स्वाभिमान और सम्मान के साथ जीना  सिखाया  . जीना  सिखाया  इस सोच के साथ की बेटिया परायी नहीं होती  बल्कि वे भी अपने माता -पिता की जिम्मेदारी को  बखूबी उठा सकती है.   उसकी विदाई ने समाज में महिलाओ की बदल रही तस्वीर का जो नमूना पेश किया ,उसने सोचने पर एवम चर्चा करने पर मजबूर कर दिया की क्या विदाई के समय पुरानी रीती के अनुसार बेटियों का रोना आवश्यक है  ,क्या उन्हें पराया धन समझना सही है या फिर बेटी भी बेटो की भाति हँसते हुए  अपनी  ससुराल ख़ुशी- ख़ुशी जा   सकती है. क्यों लोगो की सोच बदल नहीं पा रही है की   माता -पिता की सम्पति में बेटी  को  बेटो के बराबर  का  हिस्सा कानूनन दिया गया है तो फिर बेटी परायी कैसे हो सकती है. उसकी तकलीफ में उसका मायका पक्ष क्यों खड़ा नही हो सकता .क्यों शादी करने के बाद माता -पिता को लगता है की उन्होंने बेटी की शादी कर गंगा नहा ली .जबकि बेटे की शादी के बाद कोई ऐसे नहीं सोचता . आज भी बेटी का विदाई के समय न रोना अच्छा नहीं समझा जाता . लोग उसे गलत निगाह से देखते है.अक्सर लड़की न चाहते हुए भी  विदाई के समय  इसी लिए  रोती  है ,की समाज में सदियों से चली आ रही इस प्रथा से हटकर वो मजाक का कारण नहीं बनना चाहती .या  वो तब रोती है जब  वो आत्म निर्भर,आर्थिक  निर्भर नहीं होती . पैसो के लिए उसे   अपने पति  पर निर्भर  करना पड़ता है  ऐसी स्थिति  में उसे अपने पति के सही- गलत सारे फैसले न चाहते हुए भी स्वीकार करने पड़ते है. पति के चाहने पर ही वो अपने मायके वालो से रिश्ता रख पाती है. परन्तु जंहा आर्थिक  स्वाव -लम्ब्ता  है वहा आंसू बहाने की आवश्यकता नहीं पड़ती .वहा आवश्यकता है आपसी समझदारी की ,सुचारू रूप से घर चलाने की .आफिस और घर की जिम्मेदारी को बिना किसी तनाव के निभाने की .और ये तभी संभव है जब  ज्यादा से ज्यादा   लड़कियां  ऊँची शिक्षा पाकर अच्छी नौकरी करे ,ससुराल और मायके के  प्रति   अपने कर्तव्य को सही रूप से अंजाम दे .तब वे डोली में रोते हुए विदा नहीं लेंगी वरन एक आत्मविश्वास की चमक के साथ विदा लेगी की वो भविष्य में  अपने दायित्वों को सही तरह से निभा सकती है.