Saturday 28 April 2012

Bengal's traditional Tant Sarees.

                                                          तांत  साड़ी


तांत  साडी  में इस्तेमाल होने वाला सफ़ेद धागा.
 
पश्चिम बंगाल की शान ,पहचान समझी जाने वाली तांत साड़ी देखने में जितनी सुन्दर ,पहनने में  उतनी ही आसान होती है.बंगाली  बाड़ी  में कोई भी त्यौहार हो या पर्व  वो तब तक अधूरा है जब तक उस परिवार से जुडी हुयी महिलाये तांत साड़ी न पहने . बंगाली  परम्परा  के अनुसार पहनी हुयी तांत साड़ी में सजी हुयी महिलाये दिखने में बहुत ही  सुन्दर लगाती है.किन्तु बंगाल के मध्यम व् निम्न वर्ग की अधिकतर महिलाये सूती साड़ी ही पहनती है । यही नहीं तांत साड़ी उद्योग एक लघु उद्योग है इससे जुड़े लोग साड़ी कैसे बनाते है उनकी क्या आमदनी है वे कितने घंटे काम करते है.इन कारणों के बारे में विस्तृत जानकारी  प्राप्त करने के लिए 'द वेक' टीम ने उन जगहों 'शांतिपुर ,फुलिया,रानाघाट 'आदि का भ्रमण किया जंहा तांत साड़ी बनती है |' द वेक' टीम  तांत साडी की खोज खबर लेने के लिए १९ अप्रेल २०१२ को घर से निकली तो सबसे पहला झटका लगा ये जानकर की आज    टैक्सी  हड़ताल है.घडी देखी तो सुबह के सात बज चुके थे जबकि साढ़े सात बजे हमें सियालदह स्टेशन पर पहुचना था . हम लोग तुरंत सियालदह जाने वाली बस पकड़ने के लिए पैदल निकल पड़े .चांदनी से हम लोगो को बस मिल गयी .बैठने के बाद ख्याल आया की राजेश (समाचार संपादक ) का आफिस 'विश्वामित्र हिंदी दैनिक " रास्ते में  पड़ता है उसको फोन करके बोल दे की वो आफिस से निकल कर सामने सड़क पर आ जाये  जिससे वो भी हम लोगो के साथ निकल जायेगा .अन्यथा उसे फिर स्टेशन अकेले पहुचना पड़ेगा .हमने उसे फोन किया लेकिन जनाब को फोन उठाना ही नहीं था .हमारे साथ सुजीत ,शुभ्रा अदि ने भी फोन किया लेकिन नतीजा वही का  वही .हमने अपने सहयोगी दल  से कहा की  परेशान  होने की बात नहीं है वो खुद ही स्टेशन पहुँच जायेगा.  जैसे ही हम लोग सियालदह स्टेशन पर पहुंचे तो सामने ही  लालगोला  लोकल ट्रेन जाने के लिए तैयार खडी   देखी. किन्तु हम लोग उसमे चढ़ नहीं सकते थे  वजह राजेश का न पहुचना .हमें क्रोध तो बहुत आया की जब पहले से ये निश्चित हो गया था की हम लोग सुबह साढ़े सात बजे सियालदह पर मिलेंगे तो वो पहुंचा क्यों नहीं.हमने अपने साथ के लोगो से कहा की चिंता की कोई बात नहीं अगर राजेश नहीं आयेगा तो हम चारो लोग उसको लिए बिना ही निकल जायेंगे .इस पर सुजीत बोला  "हम लोग दस मिनट और  इंतजार कर लेते है ।" आठ बजे देखा जनाब अपना बैग लटकाए हुए आराम से चले आ रहे है.पूछने पर पता चला की जनाब सोकर ही सात बजे उठे .पूछने पर अपनी सफाई देते हुआ कहा की "अगर फोन उठाता तो तैयार कैसे होता" बस फिर क्या था इस यात्रा का शुभारम्भ  उसको हड्काने के साथ हो गया. क्योकि उसकी वजह से हम लोगो को नौ बजे की ट्रेन पकडनी पड़ी .सियालदह से रानाघाट का रास्ता लोकल ट्रेन से  मात्र दो घंटे का है.और किराया  सिर्फ  पंद्रह  रुपये. ट्रेन ठीक ग्यारह बजे पहुँच गयी .  सबसे पहले  रानाघाट जाने का एक कारण ये भी था की वहा पर हमारे कुछ लोग हमें साड़ी वालो से मिलवाने वाले थे वहा से हमें शांतिपुर और फुलिया जाना था.भयंकर गर्मी पड़ रही थी ऊपर से उसी कड़क धुप में सबको पैदल घूमना पड़ रहा था   .कुछ लोगों ने रुमाल भिगोकर सर पर रख लिया तो कुछ ने छाता ले लिया . हम सभी उस छोटे से रानाघाट की गलियों और रास्तो को नाप रहे थे .जगह  -जगह छोटे -छोटे कारखाने थे कही दस मशीनों वाले तो कही चार .उनमें काम करने वाले १२ से १४  (12-14 hrs) घंटे  काम करते है.जिसमे से दो घंटे खाना खाने के लिए होते है.इन कारखानों में  काम करने वाले को एक  साड़ी पर लगभग ३५ से ४०  ( 35  -40  )रूपये मिलते है.जिस मजदुर को ३५ रूपये मिलते है वो डबी नामक मशीन पर काम करता है. एक आदमी एक दिन में आठ से दस साड़ी बना लेता है. एक साड़ी तैयार होने में दो से ढाई घंटे का समय लगता है.इस तरह से इन कारखानों में काम करने वाले को एक दिन में अच्छा पैसा मिल जाता है.
डबी मशीन से बनने  वाली  साड़ी में सिर्फ बार्डर  पर ही काम होता है. 
बी मशीन में जो भाग डिजायन बनाने के लिए काम में आता है वो लकड़ी का  बना  होता  है.जबकि जैकेट मशीन (Jacquard Mchine) में डिजायन वाला भाग लोहे का होता है. डबी  मशीन से जो साड़ियाँ बनती है उन साड़ियों के बार्डर पर ही काम होता है.दूसरी मशीन जिसे  जैकेट  कहा जाता  है ,इस मशीन की डिजायन लोहे की बनी होती है.इससे बनने वाली साड़ी पर पूरा भरा हुआ काम होता है ,जैसे की आंचल के साथ -साथ पूरी साड़ी में छोटी -छोटी बूटियां. इस लिए इस मशीन पर काम करने वाले मजदुर को एक दिन का ४० से ४५ मिलता है. यंहा भी  एक आदमी ,एक दिन में आठ से लेकर दस साड़ी तक बना लेता है .अगर बिजली की कटौती नहीं हुयी तो अन्यथा चार साड़ी बनाना भी मुश्किल हो जाता है.यही कारण है की इन मशीनों को पावर लूम  कहा जाता है. इन मशीनों पर तैयार होने वाली साड़ियों को थोक भाव के अनुसार तीन सौ से लेकर चार सौ तक में बेंचा जाता है जिनका दाम बाजार में जाने के बाद पाँच सौ से लेकर छः सौ तक हो जाता है.
तांत की  सफ़ेद  साडी ,लाल पाड़ के साथ 
ये   साड़ियाँ अधिकतर पूजा में चढाने के लिए उपयोग में ली जाती है.

तांत  साडी  में इस्तेमाल होने वाले रंगीन धागे.

 तांत  साडी  मिल में  काम करती हुयी महिला 
छोटे -छोटे कारखानों में तांत  साडी का काम .
इन मशीनों  को जैकेट ( जैकार्ड ) कहा जाता है  
ये पूरी साड़ी पर विभिन्न प्रकार की सुन्दर डिजायन बनाते है.
                                         

गमछा बनाता हुआ कारीगर 
जो लोग हैंडलूम पर काम करते है ,उन्हें पावर लूम की अपेक्षा जायदा मेहनत पड़ती है, उनके  हाँथ - पांव लगातार चलते रहते है .वे एक दिन में गमछे के चार थान बड़ी मुश्किल से बना पाते है. एक थान में चार गमछे होते है और इस थान की कीमत थोक भाव वाला ग्राहक मात्र ३५ रूपये देता है जबकि खुदरा बाजार में जाकर एक गमछे की कीमत ही ६५ से ७० रूपये तक हो जाती है.
बंगाल में तांत का काम अनेक जगहों पर होता है लेकिन इसके बावजूद भी  निम्न माध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की अधिकतर महिलाये  सूती साड़ी पहनती है .इसकी मुख्य वजह तांत साड़ी का महंगा होना .इसके आलावा तांत साड़ी की देख-रेख ज्यादा करनी होती है .उसे बार-बार या तो लौंड्री में धोने व पोलिश के लिए भेजा जाये या फिर घर पर ही  कलफ लगाया  जाये .इनका कपडा भी ज्यादा दिन तक नहीं चलता .एक बार  भी घर में धो दिया जाये तो उसकी शकल बदल जाती है.यही वजह है की बंगाल में अधिकतर महिलाये  सूती साड़ी ही पहनना पसंद करती है.क्योकि सूती साड़ियों का रंग नहीं निकलता.और वे आसानी से घर में धोयी जा सकती है.
सूते का काम करती हुयी महिला 
एक गाँव में तांत की  साड़ी के बारे में जानकारी एकत्र करती हुयी
 वेक' की संपादिका एवम  पत्रकार शुभ्रा
शांतिपुर और फुलिया में अधिक दाम वाली बहुत सुन्दर साड़ियाँ बनती है इनमे तसर सिल्क ,जामदानी ,तान्गयल,काथा  के काम की हुयी  मुख्य  साड़ियाँ   है .जिन्हें शादी या किसी खास पर्व के अवसर पर पहना जाता है.
तांत साडी  का इतिहास 
लगभग पंद्रहवी शताब्दी(भक्तिकाल एवम वैष्णवी )के समय से ही शांतिपुर अपने कुशल साडी बुनकरों के चलते काफी चर्चा में रहा है .इनकी बनायीं नीलाम्बरी साडी घर -घर व्याख्यात थी, कहते है की उस समय के बुनकरों में अपनी कला के  प्रति जबरदस्त लगाव था,जिसके चलते वे हर समय कुछ न कुछ नया करते रहते थे यही नहीं इन्होने  उन्नीसवी शताब्दी (19th century) में अंग्रेजो की नीतियों के प्रति अपना रोष भी दर्ज करवाया है और विरोध भी .समय के साथ -साथ 1920 में बैरेल डोबी   (Barrel Dobby) नमक मशीन आई जिसने तांत साडी जगत में क्रन्तिकारी कदम रखा   1930 में (Jacquard Machine,  ग्रामीण भाषा में जैकेट कहा जाता है ) जैकार्ड मशीन का  आगमन हुआ .इस तरह से तांत उद्योग ने  आश्चर्य जनक सफलता प्राप्त की. 
 बटवारे  के बाद एक जबरदस्त बदलाव आया बहुत  सारे   बुनकर पाकिस्तान चले गए जो बर्तमान में बंग्लादेश है | धाकाई जामदानी साडी (Dhakai Jamdani) जो तांत की बेहतरीन साड़ियों में से मानी जाती है उसके बुनकर ढाका  के पास एक जगह में   बसे हुए है । जो बुनकर पश्चिम बंगाल के नदिया ,बर्धमान ,फुलिया,शांतिपुर  में  बसे हुए है  . उन  लोगो ने फुलिया तन्गयल (Fulia Tangail) नाम से साडी निकाली .शांतिपुर और फुलिया  के बुनकरों ने अपने कौशल का परिचय देते हुए एक और  नयी डिजायन की तांत साडी निकाली जिसे दोनों तरफ से पहना जा सकता है .
सहयोगी दल