Saturday 31 December 2011

देश का दुर्भाग्य

  
 भारत आज भी अथाह सम्पदा का मालिक है .उसके गर्भ में अनेक बेशकीमती खनिज पदार्थ समाये हुए है . उन्ही में से कोयला भी है जो करोडो -अरबो की सम्पति है ,जिसकी देख-रेख के लिए, सही उत्खनन के लिए कितने वैध खदान बनाये गए है जहा समस्त सुविधाओ का ध्यान रखने की कोशिश की जाती है .किन्तु लूट्ने वाली मानसिकता के शिकार लोग वंहा भी सेंध मारने से बाज नहीं आते और तो और बड़े -बड़े अवैध कोयला खदान ,अवैध उत्खनन ,,अवैध डिपो इतने धड़ल्ले से चल रहे है कि जिन्हें देख कर अपने आप ही समझा जा सकता है कि इतना बड़ा काम बिना ऊपर तक पहुँच बनाये सुचारू रूप से चलाना संभव नहीं है . जहा अधिकतर  लोग पैसा बनाने में विश्वास रखते हो वंहा अवैध कारोबार करना कौन सा मुश्किल काम है.,फिर वो कोयला ,भू ,पेर्टोलियम,वन ,जीव -जंतु कुछ भी हो , क्या फर्क पड़ता है . यही वजह है जितने वैध कोयला खदान नहीं है उससे तीन गुना ज्यादा अवैध खदाने है जिनकी न कोई गिनती है न कोई गिनने वाला .जहा दुर्घटनाये होना आम बात है किन्तु उनकी पुष्टि बिना साक्ष्य के करना मुश्किल.और हो भी कैसे जिस अवैध धन को उगाहने का ये ताना -बाना है उसी ताने-बाने के शिकार अधिकतर पत्र -पत्रिकाए ,पत्रकार ,प्रशासन एवं कुछ RAJNITIGY भी है ,जिनकी जेब में माल  दुर्घटना होने के साथ ही पहुँच जाता है और वे माल रूपी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक समझौते कर लेते है .वैसे इसमें बुराई क्या है सभी तो यही कर रहे है तो वे क्यों न बहती गंगा में हाथ धो ले इसी सोच के साथ वे इसे सहर्ष स्वीकार करते है और मन में उपजी ग्लानी बोध से मुक्ति पा लेते है .दूसरी ओर उस दुर्घटना स्थल में हादसे के शिकार मजदूर या तो कल का ग्रास बन जाते है या फिर उस भयानक कई सौ मीटर बिना हवा की लंबी गुफा में दब कर मरने को विवश हो जाते है ,आस -पास के लोग कोयला माफिया के खौफ से डर कर अपनी इंसानियत को कुचलता हुआ देखते रहते है ,उन मृतक मजदूरो के परिवार के लोग रुपयों का बड़ा बण्डल देख आपने आंसू पोंछ लेते है और करे भी क्या ,क्योकि जिन अवैध खदानों में उनके परिजन हादसे का शिकार हुए है ,उन खदानों में काम करना गैर क़ानूनी है . ऐसी स्थिति में उनकी शिकायत न पुलिस सुनेगी और न मदद मिलेगी फिर इन पचड़ो में बेवजह पड़ने से क्या फायदा .बस यही मूल मंत्र है जिसके बल पर गैर कानूनन काम बेफिक्री से चल रहा है .किन्तु दुःख होता है ये देखकर कि हमारे देश का दुर्भाग्य है कि पहले उसकी अपार सम्पति को लूट्ने महमूद गजनवी से लेकर नादिरशाह तक आये और बाद में लगभग दो सौ वर्षो तक अंग्रजो ने जी भरकर लूटा ,अब उसके अपने लोग अपनी अतृप्त धन कि प्यास को बुझाने लिए अपने ही देश को लूट्ने में लगे हुए है ,जिसको जहा भी कुछ नजर आ रहा है वो उसे हड़पने में लगा है ,बिना ये सोचे कि वो अपने ही देश को खोखला कर रहा है .कानून ,अनुशासन ,ईमानदारी ,देशप्रेम जीवित होते हुए भी अपने को अकेला व् लाचार पा रहे है .माफियाओ के हिमालय रूपी कद के सामने वे अपने को बौना महसूस कर रहे है किन्तु जिस दिन उन्हें अपनी ताकत का अहसास होगा उस दिन वे चींटी के सामान होते हुए भी हाथी को मरने में सक्षम होगे और रौंद डालेंगे भ्रष्ट ,लालची जमात को जो जनता कि मेहनत और मजदूरी पर अपने सुख की ईमारत को बनाने और सजाने में लगी  है .

Wednesday 14 December 2011

Ganga sagar Jan. 2012

 यात्रा आस्था ,विश्वास ,श्रद्धा ,अर्पण और तर्पण की 
  यात्रा गंगासागर की,                   
लोकल ट्रेन के अन्दर का  दृश्य 
सुना था की लोग अपने वृद्ध माता-पिता को गंगासागर तीर्थ कराने के बहाने गंग्सागर में छोड़ कर चले जाते है.ठीक वैसे ही जैसे कि  बृन्दावन ,और बनारस में  वृद्ध महिलाओं को छोड़ कर लोग आ जाते है.बस फिर क्या था हम लोगो ने निश्चय कर लिया कि हम सभी गंगासागर जायेंगे पता करने के लिए कि इस कथ्य में कितनी सच्चाई है .बस सबेरे ही हम लोग  पंहुच  गए सियालदह स्टेशन पर लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए .सात बजे वाली लोकल जिसका भाडा मात्र पंद्रह रुपये था,पकड़ कर  ठीक तीन घंटे में  हम लोग काकद्वीप पहुँच गए.काकद्वीप एक छोटा सा स्टेशन है जिसमे चहल -पहल कम ही होती है.  फिर भी यात्रियों कि सुविधा के लिए छोटी -छोटी चाय कि दुकान है ,जंहा  चाय के साथ बिस्किट व् मुड़ी (लहिया, मूंगफली  ,व् चनेके साथ ) मिलती है.इन दुकानों में एक खासियत ये भी है कि अगर  आपने   चाय पीने के पहले ताक-झाक नहीं कि तो हो सकता है कि दुकान वाली महिलाये आपको रक्खी हुयी चाय गरम कर पिला दे .काकद्वीप से जेटी नंबर 8 लगभग 9 किलोमीटर है.
वेंन यात्रा,
 काकद्वीप से जेटी नंबर  8, 9 kilomitar की दूरी पर  है. 
 वंहा से जेटी पहुचने के लिए बस ,रिक्शा, मोटर वेंन आदि मिलती है.हम लोग जैसे ही पहुचे बस निकल चुकी थी ,अब जल्दी थी जेटी पहुँच  के लांच पकड़ने की .वंहा पर बहुत सारी मोटर  रिक्शा वेन खड़ी रहती है जो जेटी तक पहुचाने का पंद्रह रुपये प्रति व्यक्ति लेती है .ये रिक्शा वेन बहुत ही संकरे मार्ग से गुजरती है ,जिसपर से एक बार में एक ही वेन जा सकती है ,लेकिन कभी -कभी सामने से दूसरी आ जाती है तो निकलने में दिक्कत होती है साथ ही वेन में सवार व्यक्ति को अपने हाथ -पैर बचा कर रखने पड़ते है  अन्यथा  दूसरी वेन से टकरा कर घायल हो सकता है.बंगाल के गाँवो की एक विशेषता है. की प्रत्येक घर के सामने नारियल ,केले, कटहल के पेड़ और एक पोखर अवश्य होगा .कही -कही उस संकरे से रास्ते के किनारे पोखर थे जिन्हें देख कर हम लोगो को डर लग रहा था की अगर जरा सा भी संतुलन बिगड़ा तो पोखर में गिरने में समय नहीं लगेगा और उसके बाद क्या होगा इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते है.
वैन से जाने वाला  संकरा मार्ग , कही -कही इसके  दोनों तरफ पोखर (छोटे तालाब) बने हुए  है .इस रस्ते पर जब  वैन गुजरती है तब  उसमे  बैठे लोगो को  बहुत डर लगता है ,क्योकि अगर वैन जरा सा भी संतुलन खोती है तो वैन में सवार लोग सीधे पोखर में गिरेंगे.

लेकिन हम लोगो को वेन यात्रा में जितना आनंद आया उतना किसी में नहीं आया .एक दम नया व् दिलचस्प अनुभव .जेटी पहुँच कर फटाफट  लांच की टिकेट ली गयी ( rupees ,6.50. per head .) टिकेट का दाम बहुत ही कम था मात्र छः रूपये पचास पैसे . में ४५ (45) मिनट की यात्रा .लांच ठसाठस भरी हुयी थी . कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था .सिवाय   भीड़ के .
जेटी नंबर ८ पर  लांच का इंतजार करते हुए
उसी भीड़ में एक तीन फीट की लड़की भीख मांग रही थी उसका कद देखकर उसे पैसा तो दे दिया लेकिन ऊपर वाले के इस अन्याय पर हम लोग सवाल भी उठा रहे थे की  अपाहिज न होते हुए भी  ये  कितनी अक्षम है जो अपनी जिम्मेदारी  भी नहीं उठा सकती ओर आम लोगो की तरह से घर बसा कर सुकून की जिंदगी भी नहीं बिता सकती ..तभी जोर -जोर से आवाज  सुनाई देने लगी "आ आ ,ले.ले"  देखा ,एक आदमी (वेंडर) जो अपने साथ ढेर सारे चने ,मुगफली , आंटे  की गोलिया लिए हुए था  तथा पक्षियों को फेंक रहा था साथ ही लांच में उपस्थित लोगो को उकसा रहा था की आप लोग तीरथ करने आये है ,इसलिए इन पक्षियों को चुगाइए आपको बहुत पुन्न मिलेगा . मतलब पुन्न के नाम पर उसकी दुकानदारी जोरदारी से चल रही थी और तीर्थयात्री पक्षियों को पास से देखने के लिए बार -बार उन्हें दाना फेंक रहे थे .
लांच में चलने वाली तीन फिटि भिखारिन  


किन्तु पक्षियों को चुगाना बहुत ही अनंदायी था  , ये दृश्य अत्यधिक लुभावना था , किन्तु भीड़ की वजह से  हम कैमरे में ठीक से कैद भी नहीं कर पाए .  विभिन्न प्रकार के पक्षी झुण्ड के साथ दानो  को लेने के लिए झपट रहे थे .पक्षियों को चुगाने का  एक अलग ही आनंद आ रहा था ,लेकिन ताज्जुब तो तब हुआ जब लौटते समय एक भी पक्षी दिखाई नहीं दिया.शायद मूक पक्षी भी जानते  है की जाते समय ही लोग उन्हें दाना देंगे ,वापसी में तीर्थयात्री  अपनी  दान की झोली खाली करके  लौटते है  और उनमे इतनी न तो ताकत होती है न ही जिज्ञासा की वे फिर से  उन्हें  दाना डाले. लांच से उतर कर कुचुबेडिया आये, जहाँ से अभी भी ३० किलोमीटर जाना बाकि था ..जिसके लिए बस ,कार ,जीप आदि उपलब्ध रहती है .जिसकी जैसी सामर्थ वो  वैसी  सुविधा ले  सकता है . बस का भाडा यहाँ भी पंद्रह (15 upye per head)  है . किन्तु गाड़ी वालो से मोल-भाव करना पड़ता है. गंगासागर पहुँच कर वहा  पर स्थित बहुत से सेवाश्रम है उनमें अपने रहने की व्यवस्था करनी होती है .लेकिन हम लोग पहले से ही भारत सेवासंघ आश्रम में अपने लिए ग्यारह रुपये प्रत्ति कमरे के हिसाब से दो कमरे आरक्षित करवा चुके थे .बड़े -बड़े कमरे  बाथरूम की सुविधा के साथ प्रथम तल्ले पर मिल गए .भारत सेवाश्रम काफी सुन्दर है. इसी आश्रम में काफी बड़ा मंदिर है इसकी सुबह -शाम की आरती मन मोह लेती है. इसके आलावा यहा २४ (24 )  घंटे बत्ती रहती है..भोग का खाना पंद्रह रूपये की स्लिप कटाने पर आसानी से उपलब्ध हो जाता है.लेकिन ये स्लिप पहले से कटानी होती है अन्यथा आपको खाना नहीं मिलेगा .वैसे गंगासागर के होटलों में खाना काफी कम दाम पर मिलता है.जैसे की बीस रूपये में चार रोटी ,दाल,सब्जी और आलू भाजा.( पतले  आकार  में आलू काट कर उन्हें नमक मिला कर तबतक  तलना जब तक की वे लाल न हो जाये और फिर खाने के साथ देना )ये बंगाल के खाने का अहम् हिस्सा है.अगर कोई रोटी नहीं खाना चाहता तो उसे चावल खाने में देते है.अगर किसी के लिए इतना खाना कम है तो तीस रूपये में मन चाहा खाना खाइए .बढ़िया चाय पांच रूपये में . गंगासागर की एक विशेषता है की वहा के दुकानदार हिंदी समझते है इसलिए तीर्थयात्रियों को तकलीफ नहीं होती . गंगासागर का मुख्य बाजार इसी आश्रम के सामने है. कपिलमुनि का आश्रम यहाँ से १. किलोमीटर ( 1.km.) है.और कपिलमुनि आश्रम  से गंगासागर भी १.किलोमीटर ( 1.km.)  की दूरी पर है .                                                                                                       
भारत सेवाश्रम संघ में बने मंदिर के पुजारी
के साथ लेखिका शकुन त्रिवेदी एवं एक भक्त 



कपिलमुनि का मंदिर 
सदियों पहले राजा भागीरथ ने अपने ६० हजार  पूर्वजो के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए शिव की कठोर तपस्या की.शिव जी ने खुश होकर भागीरथ को गंगा को पृथ्वी पर लाने की अनुमति दे दी. इससे गंगा रुष्ट होगई और रौद्र रूप धारण कर पृथ्वी के लोगो का सर्वनाश करने के लिए तेजी से पृथ्वी की ओर बढ़ी. भगवन शंकर गंगा का आशय समझ गए और  उसके वेग को अपनी जटाओ में धारण कर एक पतली सी धारा  को पृथ्वी की तरफ जाने दिया .यही पतली सी गंगा की धारा गोमुख से लेकर गंगासागर तक का सफ़र तय करती है.और देव नदी के नाम से जानी जाती है . लोगो का अपार विश्वास है की इसके पावन जल में स्नान करने से समस्त रोग और पाप धुल जाते है व् मोक्ष की प्राप्ति होती है. 
बहुत पहले लोगो के मन में भ्रान्ति थी की गंगासागर में कपिलमुनि आश्रम पूरे वर्ष पानी में समाया रहता है ,सिर्फ मकर संक्रांति के अवसर पर खुलता है. इसी लिए लोग इसके दिव्य दर्शन करने के लिए एवं मोक्ष पाने के  लिए मकर संक्रांति के अवसर पर   लाखो की संख्या में  जमा होते है.लेकिन ऐसा कुछ नहीं है.अब यंहा पर बारह महीनो दर्शन होते है. यहाँ जो मंदिर के पुजारी है उन्हें अयोध्या  की हनुमानगढ़ी  से नियुक्त किया जाता है इस लिए वे हिंदी भाषी भी है.
गंगासागर की रेत सिलेटी रंग  लिए हुए  एकदम  महीन रेत है .इसलिए पानी तो मटमैला दीखता है .लेकिन घंटो नहाने के बाद भी  शारीर  पर  कटे जैसे निशान नहीं आते है.वहा गन्दगी भी बाकि समुद्री तट की अपेक्षा कम है.  तट भी नहाने के लिए सही है.लहरे बाकि समुद्री तट की अपेक्षा कम आती है और अगर आती है तो छोटी -छोटी आती है.नहाने में बहुत मजा  आता है .यहाँ नहाने में जोखिम बहुत कम है.
  
 ऊपर ढलते हुए सूरज का दृश्य 
नीचे समुन्दर में नहाते कुछ  भक्त .
यहाँ पर दूर -दूर से तीर्थयात्री बारहों महीने आते है. इनमे से कितने लोग तो हिंदी जानते ही नहीं .हम लोगो ने वहा पर उपस्थित ऐसे ही कुछ तीर्थयात्रियो का फोटो लिया ,वे लोग हमारी भाषा तो नहीं समझ रहे थे लेकिन ये देखकर की हम फोटो खिंच रहे है ,बहुत खुश हो रहे थे .वही पर कुछ बहुएं अपनी सास को नहला रही थी तो कुछ जवान लड़के अपने साथ आये हुए बुजुर्गो की सेवा कर रहे थे .ये देख  पाश्चात्य सभ्यता में तेजी से  परवर्तित होने वाले  भारत की छवि धूमिल पड़ रही थी और उस की जगह ले रही थी माता-पिता की सेवा के लिए उदाहरण बने श्रवण कुमार की परंपरा .
गंगासागर का तट पर 
 अठखेलियाँ  खेलती लहरों के साथ फोटो  सेशन 
गंगासागर तट  पर शकुन त्रिवेदी 
छोटे से  कुत्ते के बच्चे व्  उसकी माँ  के साथ 
गंगासागर में सैकड़ो कुत्ते दैनिक ही आते है और लोग उन्हें बिस्किट या  ब्रेड खिलाते है. उनमे से कुछ कुत्ते तो काफी जख्मी भी थे ,उनके जख्म देखकर बहुत तकलीफ हो रही थी लेकिन बस में कुछ नहीं था ,इसलिए उधर से नजरे घुमा कर दूसरी जगह पर टिका दी वैसे भी कहावत है की आँख ओझल तो पहाड़ ओझल .
गंगासागर क्षेत्र में स्थित दुकान में
असली -नकली मोतियों के बारे में बताता दुकानदार

बहुत से दुकानदार मोतियों पर केमिकल लगा कर ग्राहक के सामने उसे जला कर दिखाते है की देखिये असली मोती की ये पहचान है की वो आग में जलता नहीं जबकि ज्यादातर लोग सिंथेटिक मोती बेंच रहे है. अब तो चाइना के भी मोती बाजार में आने लगे है .जिनमे चमक काफी होती है और वो ग्राहकों  का ध्यान  आसानी से अपनी ओरआकर्षित कर लेते है.
 बड़े -बड़े काढावो  में खजूर का गुड बनता हुआ .

ग्राहक को खजूर के गुड का शीरा  चखाती हुयी   महिला 
हम लोगो ने भारत सेवाश्रम के पास ही एक छोटा सा बोर्ड लगा देखा की यहाँ खजूर का गुड मिलता है .बस पहुँच गए पता करने .छोटा सा घर उसके बाहर में बड़ी सी भट्टी और उसपर उबलता हुआ खजूर का रस .देखा की वहा तो कोई है ही नहीं जिससे बात की जाये गुड के सम्बन्ध में .इसलिए  हमने सोचा की क्यों न पहले  कुछ फोटो खीच ली जाये .उसके बाद देंखे की कोई घर के अन्दर है या नहीं .फोटो खीचने के बाद हम ने दो चार बार आवाज लगायी की 'कोई है, घर में कोई है,' तभी एक दुबली पतली सी महिला घर के बाहर आई .जिसे देखकर ये समझ में आ गया की ये घर के अन्दर खाना पका रही थी .वो हम  लोगो को आया देख खुश हो गयी . उससे बात करने का सबसे बेहतरीन बहाना था गुड को खरीदना .हमने जैसे ही पूछा की "गुड क्या भाव दिया" उसने पलट कर प्रश्न दागा की  'कौनसा गुड  ,पाटाली   या शीरा '.एक मिनट के लिए हम मौन हो गए की ये क्या बोल रही है .लेकिन हमारे साथ जो बंगाली सज्जन थे उन्होंने बताया की पाटाली मतलब जमा हुआ गुड और शीरा मतलब थोडा सा तरल.जिसके साथ रोटी खाने में बहुत अच्छी लगती है.खैर हमने 1kg पाटाली गुड की मांग रखी जिसे उसने ७० रूपये के भाव पर हमें दिया और हमारे साथ वाले सज्जन को ५५ रूपये केजी के हिसाब से शीरा दिया .उससे बात करने पर हम लोगो को खजूर के गुड को बनाने की कहानी  पता चली ,कैसे लोग भोर बेला में ही खजूर के पेड़ के पास  पहुँच जाते है ,वहा पहुच कर पेड़ पर चढ़ना फिर जिस मटकी को खजूर का रस निकलने के लिए पेड़ के तने से बांधा था  उसे  खोलकर  लाते  है उसके बाद जितनी मटकियो को पेड़ से उतारा गया उन्हें साईकिल पर या किसी लकड़ी के  डंडे पर बांध कर अपने घर लायेंगे .वहा उन्हें छानकर बड़े -बड़े काढावो में डाला जायेगा और फिर कमसेकम ४-५ घंटे लगातार भट्टी पर डालकर खौलाया जायेगा .जब तक की ये पूरी तरह से सूख न जाये इस दौरान गुड के रस को लगातार चलाना पड़ता है अन्यथा   रस तली में चिपक कर जल जायेगा .इससे रस में या गुड के स्वाद में जले की दुर्गन्ध आ जाएगी . ये सुनते ही हमें बहुत पहले  अमिताभ बच्चन की देखी हुयी  पिक्चर सौदागर ( नूतन जिसमे अभिनेत्री थी )  याद आ गयी .
खजूर के गुड का शीरा  
जिसे बिक्री के लिए बर्तनों में  भरकर रक्खा गया है.  

तीर्थ यात्रियों से भरा हुआ लांच 
गंगा सागर में गायों का झुण्ड  ,
ये आकार में अन्य गायो की तुलना में छोटी होती है और दूध भी कम देती है.
लांच से उतरते तीर्थयात्री 
( 8 ) आठ नंबर लांच के पास दलदल में समाया बच्चा
लोगो से पैसा फेकने के लिए कह रहा है.



 लौटते समय हमने बहुत से बच्चो को देखा ,जिनमे से कुछ कपडे पहने हुए थे तो कुछ एकदम नंगे बदन दलदल में समाये हुए पैसे  मांग रहे थे .कई बार ये पैसा न मिलने पर यात्रियों के ऊपर मिटटी भी फेंक देते थे .और पैसा मिलने पर बाकि बच्चो के साथ तुलना करते थे की आज किसकी  आमदनी कितनी ज्यादा हुयी.इनमे से जरूरतमंद बच्चे बहुत कम थे वरन वे अपने खुद के खर्चे ,जैसे कि thumsup  ,चिप्स आदि खरीद सके .
मछली पकडती महिला 
 सूखती हुयी मछलिया ,
बंगाल के ग्रामीण इलाको का सबसे बड़ा व्यवसाय.
गंगासागर जाते समय काकद्वीप से उतर कर जेटी नंबर ८ तक पहुचने वाले मार्ग पर बहुत सी जगह मछलिया सूखती हुयी दिखाई देती है.उन मच्छलियों को सुखाने का कार्य अधिकतर महिलाये करती है . ये मछलिया सूखने के बाद बाहर बहुतायत में भेजी जाती है.ये बंगाल के ग्रामीण इलाको का सबसे बड़ा व्यवसाय है. किन्तु जब इनके पास से गुजरते है तो इनकी गंध जो लोग मछली नहीं खाते उनके लिए असहनीय हो जाती है .

'द वेक' टीम 
गंगा सागर  मेले  के समय तीर्थयात्रियों के लिए निर्धारित किराया :

 विभिन्न स्थानों से गंगासागर तीर्थयात्रियों के बस, टैक्सी, लंच, वैन रिक्शा इत्यादि वाहनों के किराए को प्रशासन ने निर्धारित कर दिया है। श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए आउट्राम घाट पर पीएचई की ओर से किराए की तालिका लगाई गई है। इसके अनुसार विभिन्न स्थानों से किराए इस प्रकार हैं-

-हावड़ा स्टेशन से नामखाना तथा हावड़ा स्टेशन से हारउड प्वाइंट तक का बस किराया- 65 रूपए
-आउट्राम से नामखाना तथा आउट्राम से हारउड प्वाइंट तक का बस किराया- 60 रूपए
- कचूबेड़िया से सागर के लिए बस भाड़ा- 30 रूपए तथा चेमागुड़ी से सागर तक का बस किराया- 20 रूपए
- लाट-8 से कचूबेड़िया तक का लांच किराया- 40 रूपए
-नामखाना से चेमागुड़ी तक लांच किराया- 75 रूपए
-कचूबेड़िया से सागर तक ट्रेकर व मिनी बस किराया- 25 रूपए
- कचूबेड़िया से सागर तक रिजर्व अंबेसेडर व टैक्सी किराया- 450 रूपए
- कचूबेड़िया से सागर तक रिजर्व मारुति भाड़ा- 470 रूपए
- कचूबेड़िया से सागर तक रिजर्व टाटा सूमो का किराया -550 रूपए
काकद्वीप रेलवे स्टेशन से लाट-8 तथा चेमागुड़ी से सागर तक के लिए वैन रिक्शा का किराया-15 रूपए।

Tuesday 15 November 2011

A journey towards Black Hole .

दो हजार फीट जमीं के नीचे,
केंद्रीय कोयला मंत्री श्री  श्रीप्रकाश  जायसवाल 
मानस संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश ) के कार्यक्रम में जाना था, जाने से पहले ही उक्त  कार्यक्रम  के  संस्थापक श्री बद्रीनारायण जी  से बात हो गयी थी  की वो हमें  'डी वेक' हिंदी पत्रिका में छापने के लिए केन्द्रीय कोयला मंत्री श्री श्रीप्रकाश जयसवाल जी  के साथ भेटवार्ता करवायेगे.उन्होंने पूरा सहयोग देते हुए उनसे हमारे लिए समय भी ले लिया.मंत्री जी का साक्षात्कार  भी हो गया, जितने सवाल मन में थे सारे के सारे पूछ लिए लेकिन अब प्रश्न था कोयले के बारे में सही जानकारी.  जो एक मुश्किल कार्य था. क्योकि उसके लिए हमें कोयला अंचल में जाकर सारी मालुमात करनी थी जो बिलकुल भी आसान  नहीं था.हमने इसके लिए आसनसोल स्थित आजतक के  संवाददाता पवन यादव से बात की .उसने हम लोगो को पूरा सहयोग करते हुए आने के लिए कहा . इसके बाद हमने अपने समाचार संपादक राजेश मिश्र से कहा की तुम्हे कल आसनसोल चलना है . अब बारी थी अपने पतिदेव मनोज त्रिवेदी को बताने की  हमने  उनसे  कहा की तुम कल चल रहे हो . जैसी की उम्मीद थी उन्होंने तुरंत जवाब दिया 'बिलकुल नहीं और तुम भी नहीं जाओगी |वो माफियाओ का क्षेत्र है तुम वहा कैसे जानकारी हासिल कर सकती हो .नेट से खबर  इकट्ठी कर लो या फिर यहाँ के कोल ऑफिस में चली जाओ |" ये वो भी जानते है और हम भी की हम जब एक बार  निश्चय  कर लेते है तो फिर पैर वापस नहीं खीचते | उन्होंने जब देखा की हम ने उनकी बात को अनसुना कर दिया है तो अपने खास दोस्त से बोले की तुम इन्हें समझाओ .उन्होंने भी अच्छे मित्र का धर्म निभाते हुए कहा " की आप वहा जाकर क्या करेगी मैंने बहुत दिनों तक कोल फील्ड  में काम किया है मै आपको  सारी  जानकारी दे दूंगा | हमने उनसे प्रश्न किया की आप कब काम करते थे ,इसपर उन्होंने पंद्रह साल पहले का हवाला दिया |जब मनोज जी ने देखा की हम अभी भी अपने निश्चय पर कायम है तो उन्होंने राजेश मिश्र को  डाटते हुए हमारे साथ न जाने को कहा .उन्होंने सोचा की जब हमारे साथ कोई नहीं जायेगा तो हम अपने आप जाने का इरादा बदल देंगे .जब राजेश ने हमें फोन कर बताया की वों साथ में नहीं आ रहा है तब हमने अपने बेटे से कहा की तुम चल रहे हो साथ या हम अकेले ही जाये क्योकि अब हम रुकने वाले है नहीं.

'THE WAKE' S NEWS EDITOR
RAJESH MISHRA, CHIEF EDITOR SHAKUN TRIVEDI & SHUBHRANSHU 
मेरी द्रढ़ता को देखते हुए वो तैयार हो गया.सुबह जब हम तैयार हो गए तो राजेश का फोन आया की उसे क्या करना चाहिए ,साथ चले या नहीं .हमने  ये  कह कर "तुम्हारी जैसी इच्छा"  बात ख़त्म कर दी| निकलते समय हमने मनोज जी को जगा कर बताया भी नहीं की हम जा रहे है क्योकि हम जानते थे की सुबह - सुबह हमें जाते देख कर उनका दिन ख़राब हो जायेगा और उनका बिगड़ा मिजाज देख कर हमारा |  गेट से बाहर  निकल कर हम जैसे ही टेक्सी में बैठने के लिए आगे बढे  राजेश साथ में आ गया .इस तरह हम  तीनो आसनसोल के लिए निकल पड़े .ब्लेक  डायमंड साढ़े चार घंटे का समय लेती है कोलकाता से कुल्टी  पहुचाने   में |  साढ़े दस के लगभग हम लोग कुल्टी में थे |स्टेशन पर पवन हम लोगो को लेने आया था | गाड़ी में बिठालने के बाद उसने हमलोगों को कुल्टी एवं   कोयला अंचल और उनके कारोबारियों के बारे में बताना आरम्भ कर दिया  | इसके बाद  वो हम लोगो को  अपने घर  ले गया  वहा चाय नाश्ता करा के कुल्टी के कोयला स्थलों को दिखाना आरंभ    किया  .वो  एक के बाद एक कुछ नया बताता जा रहा था और हम चुपचाप सुन रहे थे लेकिन संतुष्टि नहीं थी . शायद उसने ये भांप लिया था इसलिए वो हमें सीधे भारत की सबसे गहरी कोयला खदान व् संसार में दुसरे पायदान पर विराजमान चिनाकुड़ी कोयला खदान के मैनेजर से मिलवाने ले गया.इस बीच उसका दोस्त व् आसनसोल दैनिक जागरण का संवाददाता रविशंकर चौबे भी हम लोगो के साथ आ गए  |चिनाकुड़ी के मैनेजर ,डिप्टी मैनेजर एस .ऍन सिंह, इंजीनयर सुरजीत बोस ने हम लोगो  को जो जानकारी दी उसने हमें अभिभूत कर दिया|  उनकी बाते सुनकर हमें बड़ा अचरज हो रहा था की कैसे कोई खदान इतनी गहरी हो सकती है |ये ख्याल भी हमें प्रफुल्लित कर रहा था की भारत की सबसे गहरी खदान व् दुनियां की दूसरी गहरी खदान ( चीन की कोयला खदान दुनियां की सबसे गहरी खदान है.) के प्रशासनिक अधिकारीयों के  सामने हम बैठ कर बात कर रहे है  लेकिन उनकी जिस बात ने हमें सबसे ज्यादा अचरज में डाल दिया था वो थी दामोदर नदी | उन लोगो के अनुसार चिनाकुड़ी  खदान  दामोदर नदी के नीचे है| जब खदान के अन्दर जायेगे तो वहा एक ऐसी जगह है जहा आपको लिखा मिलेगा की इस जगह के ऊपर दामोदर नदी बहती है. इंजिनियर सुरजीत बोस दीवार के ऊपर टंगे नक़्शे पर स्केल लेकर हम लोगो को बता रहे थे और हम लोग बुत बने आंखे चौड़ी कर अविश्वास के साथ देख रहे थे | मैनेजर  साहब को हम लोगो की मनोस्थिति का पता चल गया .उन्होंने हम लोगो से कहा की आप खदान के नीचे  चलकर स्वयं देख लीजिये | हम लोग आनन -फानन में तैयार हो गए .उनके सहयोगी ने हम लोगो को सफ़ेद कोट पहना दिया ,जिसे पहन कर हम सब  डाक्टरों  की टीम लग रहे थे जो किसी आपरेशन के लिए तैयार खड़ी थी .हमने मेनेजर जी से पूछा की ये सफ़ेद कोट क्यों पहना जाता है.इस पर मैनेजर जी ने जवाब दिया ,"अँधेरे में नजर आने के लिए "|मन में ढेरो उत्सुकता समाये हम लोग खदान की तरफ बढ़ रहे थे .सुरजीत बोस जी बराबर हम सबको मशीनों के बारे में  समझा  रहे थे| किन्तु हम सब अपनी आदत से लाचार फोटो खीचने में ज्यादा मगन थे |इसका कारण ,एक अनजानी  दुनियां से सामना जो हम लोगो के लिए एकदम अनोखी और  रहस्योभरी  थी | हम जानते थे की हो सकता है ये हमारे लिए पहली और आखरी यात्रा बन जाये.अतः हम किसी भी अवसर और कोने को अछूता नहीं छोड़ना चाहते थे .

चिनाकुड़ी खदान की लिफ्ट के सामने 
लिफ्ट के अन्दर जाने से पहले .
जब चित्र खीचने की प्रक्रिया ख़त्म हो गयी तो हम लोग लिफ्ट की तरफ बढे .अब बारी थी  अपनी योजना को अंजाम देने की  | यानि की दो हजार फीट नीचे जाने की | नीचे जाने से पहले  मोबाईल ,शाल ,बैग ,कैमरा सब ले लिया गया था | बैटरी वाली बैल्ट के साथ हम लोगो को  टॉर्च वाला हेलमेट पहना दिया गया .ये देखकर हमें अमिताभ बच्चन की फिल्म 'कालापत्थर 'याद आ गयी | सच भी यही था की उस फिल्म के आलावा हमारे पास कोयले खदान का कोई अनुभव था ही नहीं |  इसीलिए जब  हमसे पूछा  गया की आप खदान में जाएगी  तब  एक सेकेण्ड के लिए मन में विचार आया की उस अँधेरे कुए में जाना क्या उचित होगा.किन्तु अगले ही पल मन में आया की सैकड़ो  मजदूर खदान के अन्दर काम करते है ,मैनेजर ,इंजीनियर सभी तो इसके अन्दर जाते है फिर हम क्यों नहीं जा सकते.बस इसी विचार ने हमें आगे जाने के लिए प्रेरित किया .  अब हम लोग अपने आधुनिक हथियारों( कैमरे,मोबाईल) से  दूर ब्लैक होल की तरफ अग्रसर हो रहे थे | लिफ्ट को देखकर ही संदेह  होने लगा  की ये हम लोगो का भार उठाने में सक्षम होगी भी या नहीं .पुराने ज़माने की लोहे की लिफ्ट जिसके  दोनों  सिरे जंजीर से बंधे हुए थे .ऊपर पकड़ने के लिए एक राड़  थी| सबकुल मिला कर हम आठ लोग थे .लिफ्ट में भी आठ लोगो के ही जाने की स्वीकृति थी. चूँकि हम लोग आपस में बात कर रहे थे इसलिए गहराई का अंदाजा  भी पता नहीं चल रहा था |  तभी  ट्राली चालक ने फोन द्वारा नीचे  के आपरेटर से संपर्क किया ,संपर्क के साथ ही दो बार घंटी टन -टन की आवाज के साथ बजी जिसका मतलब सिग्नल ओके. है. आपरेटर ने जोर से कहा सावधान ,सावधान की आवाज के साथ ही  खटाक  की आवाज हुयी और ट्राली नीचे की ओर चल दी .जैसे ही ट्राली नीचे की ओर तेजी से चली ,मन आशंकित हो उठा ,क्योकि अब हम लोग बाहर की दुनियां से कट चुके थे और एक अनजानी दुनियां की तरफ अग्रसर हो रहे थे .चारो तरफ काली -काली  दीवारे उन पर  रिसता हुआ  पानी , ठंडक  हमे महसूस करा रहे थे की हम लोग पाताल लोक की  दमघोटू यात्रा पर निकल चुके है.|मन एक अनजाने भय से ग्रसित होने लगा ,किन्तु इससे पहले हमारे दिमाग में कुछ नए डरावने विचार आते दो सेकेण्ड के अन्दर हम लोग दो हजार फीट नीचे उतर चुके थे | वहाँ हम लोगो की प्रतीक्षा में रत कर्मचारी ने आकर हमलोगों को पहले सावधान किया फिर उस  ट्राली से बाहर  निकाला .उस जगह हलकी पीली  रौशनी थी | उसी रौशनी में हम लोग आगे बढे ,कुछ कदम आगे जाकर हमें एक छोटी सी ट्राली मिली | उस कर्मचारी ने हमलोगों को ट्राली में बैठा दिया तथा साथ ही निर्देश दिया की आप लोग अपने शरीर  का कोई भी हिस्सा ट्राली से बाहर न निकाले अन्यथा दुर्घटना हो सकती है | मैनेजर ,व् इंजिनीयर दोनों ही हम लोगो को उस अँधेरी गुफा के बारे में समझाते जा रहे थे .उस गुफा में आक्सीजन के लिए पाइप लगे थे जिनसे वहा पर कार्य करने वाले कर्मचारियों को साँस लेने में सुविधा हो हो सके | दूसरी तरफ उस अँधेरी भयावह गुफा के रिसते हुए पानी को निकालने के लिए भी पाइप लगाये गए थे . ट्राली चल रही थी और हम लोग देख रहे थे की कैसे जगह - जगह पानी दीवारों से निकल रहा है ,कही धीमा तो कही हल्का तेज ,जैसे की पतला झरना गिर रहा हो .दीवारों पर रौशनी के लिए चूने की पुताई की गयी थी | बहुत सी जगह ऊपर की छत को सहारा देने के लिए लकड़ी के मोटे -मोटे खम्बो का सहारा लिया गया था . हम जैसे -जैसे अन्दर की तरफ बढ़ रहे थे ठंडक भी बढती जा रही थी. उस ठंडक का असर कानों पर भी पड़ने लगा और कान  सुन्न पड़ने लगे .तभी ट्राली चालक ने एक जगह ट्राली रोकी और कहा की आप लोग अपने हेलमेट की रौशनी बंद कीजिये .हम लोग सब अच्छे बच्चों की तरह लाइट बंद कर के बैठ गए .उस अँधेरे गृह में जंहा अपना हाथ भी नजर न आ रहा हो वहा बिना रौशनी के दो चार पल गुजारना  किसी कड़ी सजा से कम नहीं था | हम सभी की सांसे हलक में अटकी हुयी थी  की तभी अगले पल आदेश हुआ की अब आप रौशनी चालू रख सकते है .हमने उत्सुकतावश पूछा की आपने रौशनी बंद क्यों करवाई थी | इस पर जवाब मिला की आप लोगो को बताने के लिए की यंहा बिना रौशनी के क्या स्थिति होती है .हमने मन ही मन कहा की जब रौशनी है तब तो ये सुरंग इतनी दमघोंटू है बिना रौशनी के कोई कैसे जी सकता है |लेकिन उस पल हमें ये अनुभव अवश्य हो रहा था की अगर किसी को मारना हो तो यंहा छोड़ दिया जाये और उससे सिर्फ इतना कह दे की  अब तुम्हे खुला आसमान  देखने को कभी नसीब नहीं  होगा  ,पक्का वो व्यक्ति पंद्रह मिनट के अन्दर ही खत्म हो जायेगा ||उस दिन हमें खुले आसमान का महत्त्व समझ में आया तब लगा की वाकई में जो वस्तु आसानी से उपलब्ध होती है उसके मूल्य का कोई अंदाजा नहीं लगाता |अब हम लोग उस जगह पर थे जंहा लिखा हुआ था की इस जगह के ऊपर दामोदर नदी बहती है |ये पढ़कर हम रोमांचित हो उठे की हम लोग जमीन के इतने नीचे है की हमारे ऊपर दामोदर नदी बह रही है और हमें इसका जरा सा भी आभास नहीं |मन किसी बच्चे की भाति आपने आप से ही प्रश्न करने लगा की अगर इसकी छत में सुराख़ हो जाये तो दामोदर नदी का पानी तो पूरी खदान को ही बहा ले जायेगा |दामोदर नदी के बीचोबीच पहुँच कर ट्राली रुकवाई गयी और बताया गया की इस खदान का काफी हिस्सा दामोदर नदी के उस पार और इस पार है |  इस  खदान का कुछ हिस्सा  पुरुलिया  में भी है.बातो के दौरान हम लोग छः किलोमीटर ( 6 km.)अन्दर पहुँच गए थे .पूरी खदान में ट्राली चलाने के लिए लोहे की पटरी बनी हुयी थी  इन्ही पटरियों पर कोयले की ढुलाई छोटी -छोटी  ट्रालियों द्वारा होती है.एक जगह  ट्राली रोक कर हम लोगो को नीचे उतरने के लिए कहा गया .वहा उतरकर हम लोग आगे गए जंहा पर हमने दो रास्ते देखे ,दोनों ही रास्ते पतली सुरंग नुमा थे ,एक पतले रास्ते पर ट्राली के जाने के लिए  ट्रैक बना हुआ था दूसरी तरफ सिर्फ रास्ता ही था .हमने पूछा ये दोनों रास्ते किस लिए है .मैनेजर ने जवाब दिया की ट्राली वाले रास्ते में कोयले  की खुदाई चल रही है ,और दूसरा वाला रास्ता बंद कर दिया गया है. क्योकि वंहा कोयला अब खोदने लायक नहीं बचा  है.  हमारे पूछने पर की यहाँ कितना कोयला है ,मैनेजर जी ने बताया की  अभी  ७२ मिलियन टन (72 million ton ) कोयला  निकालना बाकी है.
अब तक हम काफी अन्दर आ चुके थे ,हमें लगा की कही ऐसा न हो की इंजीनयर साहब हमें खुदाई वाली जगह दिखाने के लिए फिर से ट्राली में बैठने  के लिए न कह दे ,  अतः हम  तुरंत वापस जाने वाले रास्ते पर आ गए .हमारे साथ के लोग भी वापस जाने के मूड  में ही थे | इंजीनियर जी ने बताया की इस खदान में दो ट्राली वाली लिफ्ट है ,अगर एक ख़राब हो जाये तो दूसरी काम करती रहती है  .इस खदान में पाँच वर्षो  से  एक भी दुर्घटना नहीं घटी | यंहा ५५०  ( 550 ) श्रमिक दैनिक काम करते है.आदि -आदि .लेकिन सच ये था की अब हमारी दिलचस्पी उस खदान के बारे में  जानकारी एकत्र करने में कम  बल्कि  दो हजार फीट नीचे जमीन  के अनछुए  अनुभवों को बाटने में ज्यादा थी | वैसे भी हमारी यात्रा  अब समाप्ति की ओर  थी और हमारे पास था अनुभवों का बेहतरीन खजाना जिसे लुटाने के लिए हमें खुले आसमान की  अत्यधिक आवश्यकता थी .
आभार स्वरूप
एक चित्र चिनाकुड़ी खदान के मैनेजर , इंजीनियर  व् 'डी वेक ' टीम के साथ
.
अवैध खदान 
जिन खदानों  को सरकार बंद करा देती है उन्ही में अवैध खुदाई होती है वंहा कोई भी नहीं जा सकता क्योकि उन खदानों के पास माफियाओ के गुर्गे   निरंतर निगरानी करते रहते है |  ये खदाने सुरक्षा के दृष्टिकोण से बिलकुल सही नहीं होती क्योकि उन खदानों में जरूरतमंद जिन्हें काम की बहुत आवश्यकता होती है वही काम करते है |    इनमे काम करने वालो को पैसा भी अच्छा मिलता है | उन खदानों में काम करने वालों का कहना है की मारना तो ऐसे भी है तो फिर क्यों न काम करके मरे कमसेकम  परिवार का पेट तो भरेगा | ये खदान बाहर से पतली सुरंग जैसी होती है जिनका मुख्य द्वार इतना छोटा होता  है  की उसमे जाने के लिए इन्सान को झुक कर जाना पड़े .मजदूर इनमे मोमबत्ती के सहारे जाते है ,यंहा आक्सीजन की कोई व्यवस्था नहीं होती ,कितनी बार जहरीली गैस निकलने से मजदूर मर जाते है या कभी आग लग जाती है या अचानक पानी की तेज धार  फूट पड़ने से मजदूर हादसों के शिकार हो जाते है.इन खदानों  से हादसे के दौरान दुर्घटनाग्रस्त लोगो को निकालने के लिए  दूसरे दरवाजे की कोई व्यवस्था नहीं होती.ये बहुत ही खतरनाक होती है |सबसे बड़ी बात की अक्सर अवैध खदानों में होने वाले हादसों की खबर प्रेस में छपने नहीं दी जाती है या तो प्रेस को पैसा देकर चुप करा दिया जाता है या डरा -धमका के उस जगह से दूर रखा जाता है. जिस परिवार का व्यक्ति इस दुर्घटना में मारा जाता है उसे पैसे के बल पर शांत रखा जाता है .चूँकि  मारा जाने वाला  व्यक्ति अवैध खदान  का कर्मचारी होता है तो परिवार वाले भी पुलिस की जाँच के डर से चुप रह जाते है.

Monday 14 November 2011

'NARAYNI DEVI' BALUGAN (DIST.KHURDA ) ORISSA

  नारायणी  देवी मंदिर      
चिल्का लेक से लगभग २२ ( 22  km )  किलोमीटर की दूरी पर नारायणी देवी मंदिर है.ये मंदिर घने जंगल में है ,यहाँ जंगली जानवरों का बहुत भय रहता है.इस मंदिर की चढ़ाई बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि आप कुछ एक सीढिया चढ़ ने कि कल्पना कर ले . ऊंचाई है लेकिन पहाड़ो में बने मंदिर से काफी कम ऊंचाई  पर है. सीढिया चढ़ के सबसे पहले पानी का छोटा सा कुंड आता है ,इसमें पानी की पतली धारा बराबर गिरती रहती है .वंहा के लोगो का कहना है की किसी को पता नहीं ये पानी कहा से आता है और कहा जाता है.

कुंड  जिसमें निरंतर जल की धारा गिरती रहती है,
ये  कहा  से आती है और कहा जाती है किसी को इसका पता नहीं .
अन्दर में मंदिर ज्यादा बड़ा नही है ,मूर्ति भी मझोले कद की है.बाकि के मंदिरों की तरह यहाँ भी पण्डे चढ़ावा में ज्यादा दिलचस्पी लेते है व् प्रत्येक आने वाले भक्त को छोटी -छोटी जगह भी दक्षिणा देने के लिए कहते है .लेकिन उन लोगो की मांग हमें समझ में आई  वो इसलिए क्योकि उस जंगल के मंदिर में जाने वाले बहुत ही कम लोग होते है ,इसलिए उनकी आमदनी भी कम ही होती है.
शकुन त्रिवेदी ,नारायणी देवी  मंदिर के प्रवेश द्वार के  सामने 

मंदिर से वापस आने के लिए पहाड़ो को काट कर बनाया गया मार्ग.

नारायणी देवी मंदिर के जंगल में एक लंगूर बन्दर पानी पीता हुआ . 

नारायणी देवी   मंदिर में बत्तख 
नारायणी देवी मंदिर का बाजार 

Wednesday 9 November 2011

दुनियाँ की दूसरी बड़ी झील," चिल्का लेक "

भारत की  सबसे बड़ी व्  दुनियाँ की दूसरी बड़ी झील,
" चिल्का लेक " 
यू तो नाम बहुत सुना था ,ओड़िसा जाना भी कई बार हुआ लेकिन चिल्का तक   पहुंचना  पहली बार हुआ  . हम सभी बहुत उत्साहित थे ,चिल्का जाने के लिए .  हर बार की तरह कही भुवनेश्वर  एवं  पुरी तक सीमित न रह जाये इस लिए हम लोगो ने चिल्का जाने का कार्यक्रम सुनिश्चित कर लिया हलाकि जिस दिन हम पुरी  पहुंचे थे ,उस दिन समुद्र में नहाना नही हो पाया था ये बात अन्दर ही अन्दर खटक रही थी .एक बार मन में आया भी की क्यों न कल हम लोग पूरी के प्रसिद्ध समुद्री तट पर मस्ती करने आ जाये .हमने  अपनी इच्छा  अपने साथ के लोगो को बताई तो उन लोगो ने जवाब दिया की समुद्र में अक्सर नहाना होता है ,हम लोग अभी तक  चिल्का   नहीं पहुचे इसलिए इस बार हमे चिल्का जाना चाहिए . चिल्का दुनिया की सबसे बड़ी झीलों में से दुसरे नंबर की है एवं भारत की सबसे बड़ी झील , जिसकी लम्बाई ६४.३ किलोमीटर व् चौड़ाई १८ किलोमीटर है.  (1100 sq km. max.length ,64.3km.max.breadth,18 km.) बस दुसरे दिन सुबह आठ बजे हम लोग गाड़ी में बैठ कर रवाना हो लिए .जिस जगह से हम लोग चले थे उस जगह से चिल्का लेक की दुरी १०४ किलोमीटर थी और रास्ता  हाई -वे .लेकिन ये देखकर हमे बड़ा अचरज हुआ कि  इस हाई -वे पर इक्का -दुक्का वाहन ही थे. जैसे -जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे जंगल ही जंगल नजर आ रहा था. हमने अपने भतीजे से पूछा 'क्या ये रास्ता ऐसा ही सन्नाटे वाला रहता है.' उसने जवाब दिया कि 'ये रास्ता ऐसा ही है , हम पहले भी कई बार आ चुके है .यहाँ आबादी बहुत  कम है." 'इतना बड़ा पर्यटन स्थल और आबादी इस तरफ न के बराबर . रास्ते के  दोनों ओर छोटी -छोटी पहाड़िया और हरियाली ही हरियाली थी प्रकति का ये सुन्दर नजारा मन को मोह रहा था ,लेकिन अन्दर ही अन्दर एक सवाल भी था कि अगर यहाँ अकेले छूट गए तो वापस जाना कितना मुश्किल होगा.या गाड़ी ख़राब हो गयी तो घंटो खड़ा रहना पड़ जायेगा .खैर हम लोग बलुगन तहसील (खुर्दा जिला, ओडिशा )में पहुँच गए उस छोटी सी जगह को प्रसिद्ध बनाने वाली चिल्का लेक में हमें काफी पर्यटक नजर आने लगे लेकिन इनमे से अधिकतर दूर -दराज गावों से आने वाले स्थानीय लोग  ही थे जो अपने मन में अपार श्रद्धा लिए हुए चिल्का झील के टापू पर स्थित कलिजय मंदिर के दर्शन करने के लिए आये थे .जैसे ही हम लोग अन्दर की तरफ चिल्का झील जाने वाले रस्ते की तरफ आये ,सामने ही   एक छोटी सी दुकान जिस पर बिस्किट, चिप्स ,व् अन्य खाने वाली वस्तुए  रंगीन प्लास्टिक  पैकेट्स में सजे हुए थे .जबकि चिल्का प्रांगन में बड़े -बड़े  वाक्यों में लिखा है की "चिल्का झील में पोलीथिन फेकना मना है."ये देखते ही मन ख़राब हो गया की एक तरफ मना लिखते है और दूसरी तरफ दुकान लगाने की स्वीकृति देते है.


अब बारी थी चिल्का झील घूमने  की उसके लिए नाव लेना था .ऐसे तो नाव का टिकेट  60  रूपये है ,लेकिन अगर नाव आरक्षित करानी  है तो उसका रेट अलग है ,हम लोगो ने सात सौ रूपये ( Rs. 700)दे कर अपने लिए नाव आरक्षित करायी. चूँकि वहा पर्यटक ज्यादा थे इसलिए आरक्षित नाव जो हम लोगो के हिस्से में आई उसकी हालत बड़ी जर्जर थी. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं था. इसलिए हम सब बिना  ना नुकुर  किये नाव पर सवार  हो कर चल दिए . नाव में बैठते ही फोटोग्राफी आरम्भ हो गयी .हमें तो वैसे ही सुन्दर -सुन्दर  चित्रों  को कैमरे में कैद करने का नशा है .इसका दुष्परिणाम कई बार सामने आता है की जो लोग हमारे साथ होते है उनकी तो तस्वीर हम ले लेते है लेकिन मेरी कोई नहीं लेता .जब दो चार बार  हमारे साथ ऐसा हो चुका तो हमने भी सीख लिया की पहले मेरी फोटो लो उसके बाद अपनी खिचवाओ .झील  में स्थित हरे -भरे छोटे -छोटे टापू नजर आ रहे थे .और उनमे चलने वाली सवारियों से भरी  बोट बड़ी ही अच्छी लग रही थीं .एक -एक चित्र हम कैमरे में कैद कर रहे थे  की अचानक नाव डगमगाने लग गयी ,हमें समझ में नहीं आया लेकिन हमारे साथ जो स्थानीय लोग थे उनके चेहरे पर हवाईया उड़ने लगी .इससे पहले हम समझते नाव  वाला नाव के बैलेंस को बनाने के लिए कभी इधर तो कभी उधर हो रहा था . हम भी अपने कैमरे को बंद कर शांति से बैठ गए .लेकिन मन हमारा शांत नहीं था  .लोगो का मानना है  की  चिल्का झील कभी किसी की बलि नहीं लेती फिर वो आज कैसे ले सकती है ,क्या हम लोग इतने पापी है .हमने अपने ध्यान को बाटने के लिए अपने साथ आ ने वाले स्थानीय व्यक्ति से पूछा की कलि जय का मंदिर किसने बनाया है और ये इसी टापू पर क्यों बना है ?

मोटर बोट की आवाज सुनकर उड़ते  हुयी पक्षी ,
टापू जिस पर कलिजय स्थित है ,पानी में तेजी से उठती हुयी लहरे .
    उसने बताया की बानपुर गाँव की एक लड़की जिसका नाम जय था अपने पिता के साथ  परिकुदा   गाँव में अपनी शादी  के लिए जा रही थी  रास्ते  में उसकी नाव डूब गयी लेकिन जितने लोग उसमे सवार थे सब के सब बच गए सिवाय उस लड़की के .बाद में लोगो ने उस लड़की की आवाज सुनी जो कह रही थी की इस टापू पर माँ काली का मंदिर बनाओ.  वहा के  राजा  ने टापू पर मंदिर बनाया और इसका नाम कलीजय रखा .तबसे लेकर आज तक चिल्का झील ने किसी की बलि नहीं ली. यही कारण है ओड़िसा के लोगो में इस मंदिर के लिए अपार श्रद्धा है. किन्तु मछ्वारो की कलीजय इष्ठ  देवी है. इनके दर्शन किये बगैर मछुवारे अपना कोई भी शुभ  काम  नहीं करते .किन्तु इतिहास में इसके बारे में बताया जाता है की इस मंदिर को बानपुर के राजा श्री जगन्नाथ मानसिंह ने १७१७ ने बनवाया था .
दूर से दिखाई देता कलिजय मंदिर 

कलिजय मंदिर 

बाते करने में समय आराम से निकल गया और तेजी से उठती लहरों का डर भी. हमें  कलिजय  पहुँचने में ४५ (45 )  मिनट का समय लगा  जबकि दूर से देखने में लग रहा था की बस  अभी पहुँच जायेंगे .  वंहा काफी भीड़ थी उड़िया भजन का कैसेट चल रहा था.समझ में नहीं आ रहा था लेकिन सुनने में कर्णप्रिय था.


कलिजय मंदिर का पुजारी दर्शनार्थियों के साथ.
हम लोग जब मंदिर के अन्दर पहुंचे तो वहा आरती हो रही थी ,हम सब आरती में शामिल हो गए  उसके बाद वहा के पुजारी ने मंदिर का दरवाजा बंद किया |अन्दर में  कलिजय को भोग लगाया गया उसके बाद उसने अपने शागिर्द को आदेश दिया  ' भोग चिल्का को  खिला दो ' .पूजा करने के बाद हम  लोगो ने घी के दीपक जलाये जो प्रसाद के साथ दिए जाते है उसके बाद  चूड़ियाँ शीतला देवी जो छोटे से कद में बाहर की तरफ स्थित है उनके  उपर बांध  दी .पूजा ख़त्म कर हम लोग फिर से फोटोग्राफी के मैदान में कूद गए हर कोई अपनी अपनी बेहतरीन फोटो खिचवाने में लगा था की तभी हमारे साथ जो                      
    स्थानीय व्यक्ति था बोला "जल्दी चलिए एक घंटे से ऊपर हो गया है ,नाव वाला वापस चला          जायेगा |".उसकी बात सुनकर हमें हंसी आ गयी ,की इसने हम लोगो को बच्चा समझ रखा है जो कह रहा है की नाव वापस चली जाएगी जबकि नाव  रिजर्व करा के  लाये है .लेकिन हम लोग  तुरंत निकल लिए क्योकि हमें खाना भी खाना  था और उसके बाद नारायणी देवी के मंदिर में जाना  था  जो की घनघोर जंगल में है.

मन्नत पूरी करने के लिए  बाँधीं गयी चूड़ियाँ 


Sunday 6 November 2011

हम पानी क्यों ख़रीदे.


गौरी कुंड से केदारनाथ  के पैदल जाने वाले मार्ग में बहती हुयी मन्दाकिनी.
ये नदियाँ  अपने साथ बहुत कुछ ले जाती है  जैसे की यूस एंड थ्रो वाले कप -प्लेट व पानी की बोतलें और बरफ से बचने वाले रेनकोट जो बीस तीस रूपये में आसानी से मिल जाते है ,किन्तु एक बार पहनने के बाद इस लायक नहीं बचते की कोई उन्हें अपने साथ वापस ले जा सके  इन्हे  नदियों के सुपुर्द कर  दिया जाता है या फिर अधिकतर तीर्थयात्री इन सबको   खाई के हवाले कर आगे बढ़ जाते है.
केदारनाथ में मन्दाकिनी के किनारे दर्शनार्थी 
 मिनरल वाटर की कंपनी लगने की बात अखबारों की सुर्खिया बनने लगी तो लोगो को आश्चर्य  होने  लगा  की क्या पानी भी बेचा जायेगा और अगर बेचा गया तो इसे खरीदेगा कौन?आश्चर्य की बात तो थी ही जिस भारत में सैकड़ो नदियाँ बहती हो,जगह -जगह पानी के सोत्र हो वंहा पानी खरीदने की चीज है.
पहाड़ो से गिरता हुआ पानी
इसका स्वाद किसी बिसलरी से कम नहीं .किन्तु आजकल पर्यटन स्थल में   इनके पानी को पीने की मनाही है.कहते है की कई बार पहाड़ी स्रोतों से निकलने वाला जल विषाक्त होता है.



समय के साथ लोगो की सोच बदली उन्हें समझ में आने लगा कि साफ पानी तो बंद बोतलों में ही मिलता है .बाकी का पानी प्रदूषित हो चुका है . बस इसी सोच ने लगभग २०० कंपनिया  बिसलरी पानी की खुलवा दी .भविष्य में भी इनका बाजार दिन -दूनी ,रात -चौगुनी रफ़्तार से बढ़ना है .क्योकि जिस तरह से स्वच्छ पीने का पानी बंद बोतलों में मिलता है उसी तरह से कल को लोग खाना बनाने से लेकर नहाने तक के लिए पानी बंद बोतलों में ही खरीदेंगे .तब ये बोतलें  उच्च जीवन शैली कि पहचान ही नहीं वरन आवश्यकता बन जाएगी .
जिस तरह से नदियों को कल-कारखानों के जहरीले रसायन द्वारा विषाक्त किया जा रहा है आने वाले दिनों में किसान उस पानी से खेती भी नहीं कर पायेगा. हमारे वैज्ञानिक अनुसन्धान करके लोगो को  चेताना चाहते है , की उनकी लापरवाही और लोभ आने वाले भविष्य को किस तरह से नष्ट करने वाला है .लेकिन प्रशासन और सत्ता के कानो पर जू तक नहीं रेंग रही है.सरकार कभी क्लीन गंगा तो कभी क्लीन जमुना की योजनाये बना कर सरकारी दफ्तरों से अर्थ मुहैया कराती है और सरकारी बाबु से लेकर जितने इन योजनाओ से जुड़े हुए रहते है सब अपनी जेबे गरम कर स्थिति की गंभीरता से मुंह मोड़ लेते है .
Drainage in Ganga at Bellurmath, Kolkata
वे ये भी सोचने का प्रयास नहीं करते की आने वाला समय उनके बच्चो के लिए कितना त्रासदी भरा होगा. जब नदिया ही नहीं बचेगी तो जल कहा से आयेंगा, जल नहीं तो जीवन नहीं .कैसे जियेगी आने वाली पीढ़ी देश -विदेश में पानी  के ऊपर रिसर्च करने वालो ने घोषणा  कर दी है की 2035  तक  भारत में गंगा .सिन्धु ,ब्रह्मपुत्र व् चीन में सबसे बड़ी नदियाँ यांग्जी,मेकोंग,साल्विन और पीली नदी पृथ्वी से गायब हो जाएँगी .वैसे भी चीन इस समय पानी की सबसे अधिक किल्लत झेल रहा है .यांग्जी जो दुनिया की तीसरी बड़ी नदी है उसमे कैंसर के जीवाणु पाए जा रहे है .पीली नदी इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी है कीअनुसंधकर्ताओ के अनुसार  वो आने वाले पाँच वर्षो में ही ख़त्म होने वाली है .चीन की नजर अब भारत की नदियों पर है ,उसने ब्रह्मपुत्र के पानी को रोकने के लिए उस पर  बांध बनाना आरंभ कर दिया है . इधर पाकिस्तान में पानी की भयंकर समस्या है .वो संसार में शीर्ष दस (पानी की समस्या से ग्रस्त ) में से सातवे स्थान पर है. पानी को लेकर उसका विवाद भारत से बराबर चल ही  रहा है. इस विवाद का मुख्य कारण झेलम नदी पर बांध बनाना. ये बांध आजाद कश्मीर की मांग से भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है.ऐसे में भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध वाली स्थिति का सामना करना पड़ सकता है .बंगलादेश ,गंगा के ऊपर बनाये गए फरक्का बांध से नाराज है ही वो भी भारत के खिलाफ खड़ा होगा .ऐसी स्थिति आने  पर भारत बहुत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा होगा.एक तरफ पानी के लिए युद्ध दूसरी तरफ पानी के आभाव में भारतीयों के स्वास्थ्य का क्षरण कैसे  झेलेगा भारत.इसलिए बेहतर यही है की हर भारतीय समय की गंभीरता को समझते हुए नदियों को प्रदूषित होने से बचाए .नदियाँ बचेगी तो कृषि बचेगी ,कृषि बचेगी तो पेट भरेगा ,जब पेट भरेगा तब देश  के लिए सोचेंगे .स्वस्थ शरीर के साथ ही दुश्मन के छक्के छुड़ाने की चेष्टा करेंगे अन्यथा 1962  के युद्ध में हमने चीन के आगे घुटने टेके थे .इस बार चीन, पाकिस्तान ,बंगलादेश तीनो एक साथ होंगे. क्या हम इतिहास दोहराना चाहेंगे, नहीं न ,तो फिर क्यों न नदियों को प्रदुषण रहित बनाने के बारे में गंभीरता से सोचे और अविरल , निर्मल,धवल ,कल-कल बहती हुयी नदियों के स्वरूप को वापस लाये. बोतलों में बिकते हुए पानी को खरीदने की बढती हुयी संस्कृति पर अंकुश लगाये. 
केदारनाथ में बहती हुयी  मन्दाकिनी  ,
इसकी सतह के ऊपर बने हुए होटल और धर्मशाला 

इनसे निकलने वाली गंदगी इसी नदी के सुपुर्द की जाती है. 

बद्रीनाथ धाम में अलकनंदा के किनारे मनोज त्रिवेदी ,शकुन त्रिवेदी 
  यंहा भी अलकनंदा नदी गंदगी से अछूती नहीं है.