Sunday 16 October 2011

शब्दों में व्याख्यायित जगन्नाथ पुरी.


Shree Jagannath puri Temple 

क्या  सच में भगवान है ? 
 अगर है तो उसके  कर्मचारी इतने भ्रष्ट क्यों है ?क्यों भगवन को दिखाई नहीं देता की उसके अपने घर में ही कितनी लूटपाट मची है,उसके  नाम पर (भगवान) उसके ही मंदिर के कुछ कर्मचारी  भक्तो की श्रद्धा और आस्था को रूपये में तौल रहे है ,जो जितना बड़ा पैसो का ढेर लगाएगा वो उतना ही बड़ा भक्त कहलायेगा लेकिन  जो निर्धन है वो घंटो भीड़ में खड़ा हो कर पसीना  बहायेगा धक्के खायेगा, अधिकतर  पंडो के क्रोध का भाजन बनेगा  किन्तु दर्शन के नाम पर ईश्वर  की प्रतिमा अगर  एक सेकेण्ड के लिये  दिख जाये तो अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा खुशनसीब समझेगा . क्यों है दिया  तले अँधेरा, क्यों ईश्वर अपने ही दरबार में आँखों पर पट्टी बांधे सही- गलत सब होने देता है .
 ऐसे कुछ प्रश्न है जो दिमाग को सिर्फ मथते ही नहीं बल्कि  सैकड़ो प्रश्न खड़े कर देते है उस भगवान के अस्तित्व के ऊपर जिसके दर्शनों के लिए एक भारी भीड़ लालायित रहती है ?
अचानक हमारा पुरी जाने का कार्यक्रम बन गया,जब भी हम पुरी जाते है  खुश होने की बजाय खिन्नता और रोष लेकर वापस आते है.इस बार भी वही हुआ हम ६. लोग थे जिनमे से  एक वहा का  स्थानीय निवासी  होने के साथ-साथ  हमारे भतीजे  का भुवनेश्वर में सहकर्मी था ,इसलिए उसने हमसे कहा कि "बुआ आप पंडा मत करियेगा ,हम अक्सर यंहा आते है ,हमें यहाँ के बारे में पूरी जानकारी है ". हमने भी उसकी बात मान ली .मंदिर के प्रवेश द्वार पर बहते हुए पानी कि व्यवस्था थी जो भक्त  जनों के चरणों को पखार रहा था .मंदिर के गेट के बाहर ही एक ऊँचा सा स्तम्भ बना हुआ है ,जिसके ऊपर मंदिर का  ध्वज लहरा रहा था .हम  उसे देखने के लिए जैसे ही घूमे एक पंडा जो वहा पहले से ही खड़ा था बोला " इसको मत्था टिका कर कुछ दक्षिणा रखिये.  "हमने उसे ऐसे देखा जैसे किसी अजूबे को देख रहे हो .और बिना कुछ बोले मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गए. हमने जैसे ही मंदिर के  प्रांगन  में कदम रखे  हमारे  मुंह से अनायास निकला "उफ़ इतना बड़ा मंदिर ,इतना नाम ,लेकिन सफाई नहीं"   जगह -जगह पानी जमा था फर्श भी सही नहीं था. 
हमारे साथ जो स्थानीय व्यक्ति था उसका नाम प्रोबीर था ,वो हमें एक -एक मंदिर के दर्शन करा रहा था ,तभी एक पंडा सफ़ेद धोती पहने ,लम्बे खुले बालो के साथ हमारे साथ हो लिया ,जंहा प्रोबीर हमें कुछ बताने कि कोशिश करता वो पहले ही बोलने लगता .हम लोग   उसे सुना-अनसुना कर देते ,इसके बाद भी वो हमारे साथ -साथ ही चलता .एक जगह  बिमला  मंदिर था हम सभी उसके दर्शन करने के लिए मंदिर के अन्दर गए वहा पर आरती रखी हुयी थी हमने अपने बैग से कुछ रूपये  निकाले और आरती पर चढ़ा दिए .ये देख कर वहा उपस्थित पंडो में से एक ने मेरा हाथ पकड़ा और देवी कि प्रतिमा के सामने खड़ा कर जोर -जोर से श्लोक बोलने लगा .हम समझ गए कि बस अब हलाल होने कि बारी है,वैसे मदिर में हम संकल्प करके ही गए थे ,लेकिन पण्डे महाराज ने अपना फरमान जारी कर दिया कि 'देवी के पात्र में ५०० रूपये रख दीजिये." हमने कहा 'आप हमको अन्दर इसीलिए लेकर  आये थे  जिससे कि आप हमें बेवकूफ बना कर ठग सके ,हम यहाँ कुछ नहीं चढायेगे" उसने देखा कि हम उसके जाल में फ़सने वाले नहीं है ,तुरंत बोला "अरे माँ  तुम इतना गुस्सा क्यों करती हो ,ये चढ़ावा हम थोड़े ही लेंगे ये तो देवी के पात्र में जायेगा, अच्छा २५० रूपये दे दो ."हम भी कुछ कम नही थे ,हमने तुरंत बोला "एक भी पैसा नहीं चढायेगे जिस देवी का आप भय दिखा रहे है वो सब देख रही है , इस लिए हमें आप उनके क्रोध की प्रचंडता  समझा कर  डराने की  कोशिश मत करिए "हम लोगो कि  बाते सुनकर जितने भी भक्त आ रहे थे वे वही खड़े हो जारहे थे ,अब पण्डे को लगा कि अगर बहस ज्यादा की तो   उसकी दुकान पर असर पड़ेगा .अंत में हार मानते हुए बोला कि 'ठीक है माँ जो तुम्हारी इच्छा हो वो चढ़ा दो ." हम  भी जितना संकल्प कर के गए थे चढ़ाया और उससे बोले 'देवी का चढ़ा हुआ सिंदूर और चूड़ी दो .' प्रत्युत्तर  में उसने हमें सिंदूर चूड़ी थमा दी .उस कक्ष से जैसे ही बाहर निकले ,दो पण्डे खड़े हो गए "माँ दक्षिणा दो."
श्री जगन्नाथ मंदिर में जाने के पहले घी के दिए जला कर मंदिर के गुम्बद की आरती की जाती है .ये दिए भी बिकते है जिसकी जितनी श्रद्धा हो उतने दाम के दिए लेकर आरती कर ले .लेकिन वंहा भी वही कहानी .दिए जलाने के स्थान पर कुछ लोग खड़े रहेगे और दक्षिणा मांगेगे.
श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर जो ध्वज लहराता है उसके बारे में कहा जाता है की अगर कोई मन्नत  मानता है और वो मन्नत  पूरी हो जाती है तो उसे उस मंदिर के ऊपर अपना ध्वज चढ़ाना होता है.और अगर परिक्रमा के दौरान वो ध्वज किसी भक्त के ऊपर गिर जाये तो उसके सरे रोग ख़त्म हो जाते है और उसके घर में सुख  सम्पन्नता  आती है .    
अब हम लोग मुख्य मंदिर में प्रवेश कर गए ,और जो पंडा हम लोगो के साथ बिन बुलाये मेहमान कि भाति चल रहा था उसे लगने लगा कि ये लोग उसे पत्ता देने वाले नहीं .  बस   उसका  पारा सातवे आसमान पर पहुँच गया उसने आव देखा न ताव प्रोबीर को उल्टा सीधा सुनाना आरम्भ कर दिया ,यंहा तक कह दिया कि तुम्हारे  वंश में कोई नाम लेने वाला नहीं होगा .प्रोबीर दुखी होकर हमसे बोला 'बुआ आपने देखा 'ये कैसे कह रहे है ,हम हँस दिए ,और उस पण्डे कि तरफ देख कर बोले कि 'आपके चाहने से कुछ  होने वाला नही ,आप हम लोगो के साथ अपना समय बर्बाद मत करिए और यंहा से चले जाइये वही अच्छा है.'मंदिर के अन्दर काफी भीड़ थी. सभी भक्त गन श्री जगन्नाथ जी की एक झलक पाने के लिए बेचैन हुए जा रहे थे ,लेकिन  वहा के पण्डे महाराज, मंदिर के पट मुश्किल से दो मिनट के लिए खोलते जैसे ही भीड़ झलक पाने के लिए आगे बढती पंडो के हाथ भी दक्षिणा पाने की  लालसा में आगे बढ़ जाते .जो लोग नहीं देते उनके सामने की रेलिंग पर बैठ जाते .परिणाम बेचारे दर्शनार्थी एक झलक पाने के लिए भी तरस जाते .puri में भी भक्तो केलिए अन्य मंदिर की तरह ही विशेष इंतजाम है .यानि की जितना पैसा दीजिये उतने ही अच्छे दर्शन कीजिए .प्रोबीर ने हमें बताया की जो लोग श्री जगन्नाथ जी की मूर्ति के  पास जाकर दर्शन करते है वो सही नहीं है ,क्योकि पुरानी परंपरा के अनुसार मंदिर में एक निश्चित स्थान है जंहा से दर्शन करना शुभ माना जाता है.मंदिर से बाहर आकर अब तय हुआ की प्रसाद खाना बहुत आबश्यक है ,इसलिए हम सभी प्रसाद स्थल पर पहुंचे .
shri jagannath ji ka prasad.
Publish Postवहा मिटटी की मटकियो में दाल,चावल ,  मिक्स सब्जी व् मीठा चावल था.दिन के चार बज रहे थे .भूख बहुत जोरो से लगी थी लेकिन प्रसाद स्थल का नजारा देखते ही  भूख  मर गयी ,चारो तरफ सड़े हुए खाने की दुर्गन्ध .जो लोग प्रसाद बेंच रहे थे वे भी गंदे स्टूल पर बैठे  चारो  ओर से छोटी -बड़ी  खाने की खुली हुयी मटकियो से घिरे हुए थे .(प्रसाद बेचने की कोई तय राशी नहीं है जिसका जैसा मन होगा वैसा भाव लगा देगा .हम ६. लोगो ने  ३५० रूपये का खाना ख़रीदा था) क्या आमिर क्या गरीब सभी अपनी आस्था के हाथो बंधे उस गंदगी में बैठ कर खा रहे थे .हम लोग भी बैठ गए .मन ही मन एक तूफान अंदर घुमड़  रहा था की क्या इस गंदगी में  खाना गले के नीचे उतरेगा , कहते  है कि यहाँ के प्रसाद का निरादर नही करना चाहिए .भगवन जगन्नाथ नाराज हो जाते है.इसका एक उदाहरण हमने अपनी ससुराल में सुना भी था कि हमारे ससुर जी के चाचा जो उस समय आई सी.एस. थे .अपनी पत्नी और कुछ लोगो के साथ पुरी में श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में दर्शन करने गए थे ,वहा के एक पण्डे ने कच्चा प्रसाद (दाल,चावल) लाकर गाड़ी में रख दिया .जब उनकी पत्नी को पता चला तो वो आगबबुला हो गयी और उन्होंने प्रसाद फिकवा कर गाड़ी धुलवा दी (पुराने ज़माने में दाल,चावल व् रोटी को रसोईघर से बाहर नहीं ले जाया जाता था क्योकि उस खाने को छूत समझा जाता था ,जबकि पूरी ,सब्जी लोग रास्ते में खाने के लिए ले जाते थे और उसमे कोई बुराई   नहीं मानी  जाती थी. इस लिए उन्होंने ने भी कच्चे खाने को प्रसाद न समझ कर सिर्फ खाना समझा और फिकवा दिया) नतीजा कुछ समय बाद वो अंधी हो गयी और उन्हें ऐसी बीमारी हो गयी कि  अपने पास वो न किसी को आने देती न ही किसी को छूती यहाँ तक कि घर के बच्चो को भी नहीं छूती ,दिन -दिन भर नहाती ही रहती .हमने मन ही मन श्री जगन्नाथ जी से कहा कि भगवन अब तुम्ही बताओ क्या करना चाहिए ,यहाँ तो बड़ी गंदगी है.इस खाने को कोई कैसे खा सकता है .तब तक प्रोबीर आ  गया ,बोला बुआ दिन का चार बज रहा   है खाना लगता है   ख़राब हो गया होगा बताइए क्या करे .  .हमने  खाना  थोडा सा लेकर चखा,स्वाद में खाना ठीक  था. हम ६. लोग थे खाना तीन छोटी -छोटी मटकियो में था, जो भी देखता यही सोचता की इतने कम खाने में छः लोगो को कैसे पूरा पड़ेगा लेकिन ये देखकर हमें भी आश्चर्य हुआ की खाना कम नही पड़ा बल्कि बच और गया. खाने का स्वाद घर के खाने से बिलकुल अलग था,दाल  बहुत मीठी  थी वो दाल कम,दाल का मीठा हलुवा ज्यादा था .मिक्स  सब्जी भी मीठी ही थी.पीने के पानी की व्यवस्था थी लेकिन वंहा भी लाइन थी.  जगह -जगह पंता भात   (रात के बचे हुए चावल  में  पानी भर कर रख दिया जाता है ,जिसे उड़ीसा व् बंगाल में बहुत प्रेम से सुबह के नाश्ते में शामिल किया जाता है .अधिकतर डाक्टर के अनुसार ये पेट ठंडा रखता है.) बिक रहा था . बहुत से भक्त गन उसे व् उसके पानी को खरीद कर सुस्वादन कर रहे थे. वंहा भी गंदगी व् दुर्गन्ध अपार थी . अब हम लोग ले जाने के लिए प्रसाद खरीदने पहुंचे .प्रसाद में मालपुआ, कपूर पड़े हुए आंटे के लड्डू,  खस्ता, गुड में पगे हुए अनेक पकवान आदि.यंहा तक श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में चढ़ाये जाने वाले कच्चे चावल भी बिक रहे थे ,सुनते है  इन चावलों का घर में रखना बहुत शुभ होता है.
जितनी दुकाने उतने प्रकार के दाम.अगर आप में मोल -भाव करने की शक्ति है तो आप काफी कुछ ले सकते है अन्यथा अपने बजट के अनुसार चले और इच्छाओ को  काबू में रखे. निकलते समय हमने कहा चलो रसोई देखते है ,ये प्रसाद कैसे तैयार किया जाता है. जैसे ही रसोई की तरफ चले दो पण्डे आ गए बोले 'टिकेट लगेगा.'इससे पहले की हम कुछ कहते, हमारे साथ के लोग कहने लगे की काफी समय हो रहा है ,अभी हम लोगो को सी बीच पर भी जाना है. इस लिए रसोई घर बाद में देख लेना .खैर रसोईघर  देखने का इरादा स्थगित कर हम आगे  बढ़  गए. हम लोग बाहर से श्री जगन्नाथ जी की छड़ी ,फोटो ,मूर्ति आदि लेते हुए पैदल ही चल कर गाड़ी पार्किंग की जगह आ गए जो मंदिर से लगभग एक -दो किलोमीटर की दूरी पर था .वहा पहुच कर हमने सुलभ शौचालय की खोज की .मिल भी गया साफ सुथरा व् काफी बड़ा.किन्तु उस शौचालय के नाम ने मेरे मन में फिर से वित्रष्णा भर दी .क्योकि उस शौचालय का नाम श्री जगन्नाथ जी के ऊपर रखा गया था . हमें ये समझ में नहीं आ रहा था  की ऐसी कैसी भक्ति और आस्था  जिसने शौचालय को भी नहीं छोड़ा . 
आस्था का परिणाम  ,
सुलभ शौचालय भी  श्री जगन्नाथ के नाम पर .
प्रत्येक मंदिर की भाति यहाँ भी पैसे वालो के लिए  अलग से व्यवस्था होती है ,लेकिन अगर मंदिर के बारे में  वास्तविक जानकारी लेनी हो तो आम आदमी बन कर ही जाना होगा तभी आप आम लोगो की परेशानियों से परिचित हो सकते है .

Jagannath Puri's description



Jagannath Temple

Puri is one of the four 'dhams' of the Hindus along with Varanasi, Dwarka and Rameshwaram. Puri is well-known for a 12th-century temple called "Jagannath" erected in honor of the Hindu god Vishnu. The temple of Lord Jagannath is a colossal one. Since the town is a religious place and a sea resort, it attracts devotees in large numbers. Puri is also famous for its car festival.
Lord Jagannath, the symbol of universal love and brotherhood is worshiped in the Temple along with Balabhadra, Subhadra, Sudarshan, Madhaba, Sridevi and Bhudevi on the Ratnabedi or the bejeweled platform. The Deities, Lord Jagannath, Balabhadra, Subhadra and Chakra Sudarshan are made of margosa wood. These three together are the principal deities of the temple, whose images reside in the temple's sanctuary.
The temple was originally built by the Kalinga ruler Anantavarman Chodaganga (1078 - 1148 CE). Much of the present structure was built by King Ananga Bhima Deva in the year 1174 CE. It took 14 years to complete and was consecrated in 1198 CE. It is believed that the image of Jagannath was buried thrice in the Chilka lake for protection from invaders.
The vast temple complex occupies an area of over 400000 square feet, and is bounded by a 20 feet high fortified wall. This complex contains about 120 temples and shrines.