Tuesday 15 November 2011

A journey towards Black Hole .

दो हजार फीट जमीं के नीचे,
केंद्रीय कोयला मंत्री श्री  श्रीप्रकाश  जायसवाल 
मानस संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश ) के कार्यक्रम में जाना था, जाने से पहले ही उक्त  कार्यक्रम  के  संस्थापक श्री बद्रीनारायण जी  से बात हो गयी थी  की वो हमें  'डी वेक' हिंदी पत्रिका में छापने के लिए केन्द्रीय कोयला मंत्री श्री श्रीप्रकाश जयसवाल जी  के साथ भेटवार्ता करवायेगे.उन्होंने पूरा सहयोग देते हुए उनसे हमारे लिए समय भी ले लिया.मंत्री जी का साक्षात्कार  भी हो गया, जितने सवाल मन में थे सारे के सारे पूछ लिए लेकिन अब प्रश्न था कोयले के बारे में सही जानकारी.  जो एक मुश्किल कार्य था. क्योकि उसके लिए हमें कोयला अंचल में जाकर सारी मालुमात करनी थी जो बिलकुल भी आसान  नहीं था.हमने इसके लिए आसनसोल स्थित आजतक के  संवाददाता पवन यादव से बात की .उसने हम लोगो को पूरा सहयोग करते हुए आने के लिए कहा . इसके बाद हमने अपने समाचार संपादक राजेश मिश्र से कहा की तुम्हे कल आसनसोल चलना है . अब बारी थी अपने पतिदेव मनोज त्रिवेदी को बताने की  हमने  उनसे  कहा की तुम कल चल रहे हो . जैसी की उम्मीद थी उन्होंने तुरंत जवाब दिया 'बिलकुल नहीं और तुम भी नहीं जाओगी |वो माफियाओ का क्षेत्र है तुम वहा कैसे जानकारी हासिल कर सकती हो .नेट से खबर  इकट्ठी कर लो या फिर यहाँ के कोल ऑफिस में चली जाओ |" ये वो भी जानते है और हम भी की हम जब एक बार  निश्चय  कर लेते है तो फिर पैर वापस नहीं खीचते | उन्होंने जब देखा की हम ने उनकी बात को अनसुना कर दिया है तो अपने खास दोस्त से बोले की तुम इन्हें समझाओ .उन्होंने भी अच्छे मित्र का धर्म निभाते हुए कहा " की आप वहा जाकर क्या करेगी मैंने बहुत दिनों तक कोल फील्ड  में काम किया है मै आपको  सारी  जानकारी दे दूंगा | हमने उनसे प्रश्न किया की आप कब काम करते थे ,इसपर उन्होंने पंद्रह साल पहले का हवाला दिया |जब मनोज जी ने देखा की हम अभी भी अपने निश्चय पर कायम है तो उन्होंने राजेश मिश्र को  डाटते हुए हमारे साथ न जाने को कहा .उन्होंने सोचा की जब हमारे साथ कोई नहीं जायेगा तो हम अपने आप जाने का इरादा बदल देंगे .जब राजेश ने हमें फोन कर बताया की वों साथ में नहीं आ रहा है तब हमने अपने बेटे से कहा की तुम चल रहे हो साथ या हम अकेले ही जाये क्योकि अब हम रुकने वाले है नहीं.

'THE WAKE' S NEWS EDITOR
RAJESH MISHRA, CHIEF EDITOR SHAKUN TRIVEDI & SHUBHRANSHU 
मेरी द्रढ़ता को देखते हुए वो तैयार हो गया.सुबह जब हम तैयार हो गए तो राजेश का फोन आया की उसे क्या करना चाहिए ,साथ चले या नहीं .हमने  ये  कह कर "तुम्हारी जैसी इच्छा"  बात ख़त्म कर दी| निकलते समय हमने मनोज जी को जगा कर बताया भी नहीं की हम जा रहे है क्योकि हम जानते थे की सुबह - सुबह हमें जाते देख कर उनका दिन ख़राब हो जायेगा और उनका बिगड़ा मिजाज देख कर हमारा |  गेट से बाहर  निकल कर हम जैसे ही टेक्सी में बैठने के लिए आगे बढे  राजेश साथ में आ गया .इस तरह हम  तीनो आसनसोल के लिए निकल पड़े .ब्लेक  डायमंड साढ़े चार घंटे का समय लेती है कोलकाता से कुल्टी  पहुचाने   में |  साढ़े दस के लगभग हम लोग कुल्टी में थे |स्टेशन पर पवन हम लोगो को लेने आया था | गाड़ी में बिठालने के बाद उसने हमलोगों को कुल्टी एवं   कोयला अंचल और उनके कारोबारियों के बारे में बताना आरम्भ कर दिया  | इसके बाद  वो हम लोगो को  अपने घर  ले गया  वहा चाय नाश्ता करा के कुल्टी के कोयला स्थलों को दिखाना आरंभ    किया  .वो  एक के बाद एक कुछ नया बताता जा रहा था और हम चुपचाप सुन रहे थे लेकिन संतुष्टि नहीं थी . शायद उसने ये भांप लिया था इसलिए वो हमें सीधे भारत की सबसे गहरी कोयला खदान व् संसार में दुसरे पायदान पर विराजमान चिनाकुड़ी कोयला खदान के मैनेजर से मिलवाने ले गया.इस बीच उसका दोस्त व् आसनसोल दैनिक जागरण का संवाददाता रविशंकर चौबे भी हम लोगो के साथ आ गए  |चिनाकुड़ी के मैनेजर ,डिप्टी मैनेजर एस .ऍन सिंह, इंजीनयर सुरजीत बोस ने हम लोगो  को जो जानकारी दी उसने हमें अभिभूत कर दिया|  उनकी बाते सुनकर हमें बड़ा अचरज हो रहा था की कैसे कोई खदान इतनी गहरी हो सकती है |ये ख्याल भी हमें प्रफुल्लित कर रहा था की भारत की सबसे गहरी खदान व् दुनियां की दूसरी गहरी खदान ( चीन की कोयला खदान दुनियां की सबसे गहरी खदान है.) के प्रशासनिक अधिकारीयों के  सामने हम बैठ कर बात कर रहे है  लेकिन उनकी जिस बात ने हमें सबसे ज्यादा अचरज में डाल दिया था वो थी दामोदर नदी | उन लोगो के अनुसार चिनाकुड़ी  खदान  दामोदर नदी के नीचे है| जब खदान के अन्दर जायेगे तो वहा एक ऐसी जगह है जहा आपको लिखा मिलेगा की इस जगह के ऊपर दामोदर नदी बहती है. इंजिनियर सुरजीत बोस दीवार के ऊपर टंगे नक़्शे पर स्केल लेकर हम लोगो को बता रहे थे और हम लोग बुत बने आंखे चौड़ी कर अविश्वास के साथ देख रहे थे | मैनेजर  साहब को हम लोगो की मनोस्थिति का पता चल गया .उन्होंने हम लोगो से कहा की आप खदान के नीचे  चलकर स्वयं देख लीजिये | हम लोग आनन -फानन में तैयार हो गए .उनके सहयोगी ने हम लोगो को सफ़ेद कोट पहना दिया ,जिसे पहन कर हम सब  डाक्टरों  की टीम लग रहे थे जो किसी आपरेशन के लिए तैयार खड़ी थी .हमने मेनेजर जी से पूछा की ये सफ़ेद कोट क्यों पहना जाता है.इस पर मैनेजर जी ने जवाब दिया ,"अँधेरे में नजर आने के लिए "|मन में ढेरो उत्सुकता समाये हम लोग खदान की तरफ बढ़ रहे थे .सुरजीत बोस जी बराबर हम सबको मशीनों के बारे में  समझा  रहे थे| किन्तु हम सब अपनी आदत से लाचार फोटो खीचने में ज्यादा मगन थे |इसका कारण ,एक अनजानी  दुनियां से सामना जो हम लोगो के लिए एकदम अनोखी और  रहस्योभरी  थी | हम जानते थे की हो सकता है ये हमारे लिए पहली और आखरी यात्रा बन जाये.अतः हम किसी भी अवसर और कोने को अछूता नहीं छोड़ना चाहते थे .

चिनाकुड़ी खदान की लिफ्ट के सामने 
लिफ्ट के अन्दर जाने से पहले .
जब चित्र खीचने की प्रक्रिया ख़त्म हो गयी तो हम लोग लिफ्ट की तरफ बढे .अब बारी थी  अपनी योजना को अंजाम देने की  | यानि की दो हजार फीट नीचे जाने की | नीचे जाने से पहले  मोबाईल ,शाल ,बैग ,कैमरा सब ले लिया गया था | बैटरी वाली बैल्ट के साथ हम लोगो को  टॉर्च वाला हेलमेट पहना दिया गया .ये देखकर हमें अमिताभ बच्चन की फिल्म 'कालापत्थर 'याद आ गयी | सच भी यही था की उस फिल्म के आलावा हमारे पास कोयले खदान का कोई अनुभव था ही नहीं |  इसीलिए जब  हमसे पूछा  गया की आप खदान में जाएगी  तब  एक सेकेण्ड के लिए मन में विचार आया की उस अँधेरे कुए में जाना क्या उचित होगा.किन्तु अगले ही पल मन में आया की सैकड़ो  मजदूर खदान के अन्दर काम करते है ,मैनेजर ,इंजीनियर सभी तो इसके अन्दर जाते है फिर हम क्यों नहीं जा सकते.बस इसी विचार ने हमें आगे जाने के लिए प्रेरित किया .  अब हम लोग अपने आधुनिक हथियारों( कैमरे,मोबाईल) से  दूर ब्लैक होल की तरफ अग्रसर हो रहे थे | लिफ्ट को देखकर ही संदेह  होने लगा  की ये हम लोगो का भार उठाने में सक्षम होगी भी या नहीं .पुराने ज़माने की लोहे की लिफ्ट जिसके  दोनों  सिरे जंजीर से बंधे हुए थे .ऊपर पकड़ने के लिए एक राड़  थी| सबकुल मिला कर हम आठ लोग थे .लिफ्ट में भी आठ लोगो के ही जाने की स्वीकृति थी. चूँकि हम लोग आपस में बात कर रहे थे इसलिए गहराई का अंदाजा  भी पता नहीं चल रहा था |  तभी  ट्राली चालक ने फोन द्वारा नीचे  के आपरेटर से संपर्क किया ,संपर्क के साथ ही दो बार घंटी टन -टन की आवाज के साथ बजी जिसका मतलब सिग्नल ओके. है. आपरेटर ने जोर से कहा सावधान ,सावधान की आवाज के साथ ही  खटाक  की आवाज हुयी और ट्राली नीचे की ओर चल दी .जैसे ही ट्राली नीचे की ओर तेजी से चली ,मन आशंकित हो उठा ,क्योकि अब हम लोग बाहर की दुनियां से कट चुके थे और एक अनजानी दुनियां की तरफ अग्रसर हो रहे थे .चारो तरफ काली -काली  दीवारे उन पर  रिसता हुआ  पानी , ठंडक  हमे महसूस करा रहे थे की हम लोग पाताल लोक की  दमघोटू यात्रा पर निकल चुके है.|मन एक अनजाने भय से ग्रसित होने लगा ,किन्तु इससे पहले हमारे दिमाग में कुछ नए डरावने विचार आते दो सेकेण्ड के अन्दर हम लोग दो हजार फीट नीचे उतर चुके थे | वहाँ हम लोगो की प्रतीक्षा में रत कर्मचारी ने आकर हमलोगों को पहले सावधान किया फिर उस  ट्राली से बाहर  निकाला .उस जगह हलकी पीली  रौशनी थी | उसी रौशनी में हम लोग आगे बढे ,कुछ कदम आगे जाकर हमें एक छोटी सी ट्राली मिली | उस कर्मचारी ने हमलोगों को ट्राली में बैठा दिया तथा साथ ही निर्देश दिया की आप लोग अपने शरीर  का कोई भी हिस्सा ट्राली से बाहर न निकाले अन्यथा दुर्घटना हो सकती है | मैनेजर ,व् इंजिनीयर दोनों ही हम लोगो को उस अँधेरी गुफा के बारे में समझाते जा रहे थे .उस गुफा में आक्सीजन के लिए पाइप लगे थे जिनसे वहा पर कार्य करने वाले कर्मचारियों को साँस लेने में सुविधा हो हो सके | दूसरी तरफ उस अँधेरी भयावह गुफा के रिसते हुए पानी को निकालने के लिए भी पाइप लगाये गए थे . ट्राली चल रही थी और हम लोग देख रहे थे की कैसे जगह - जगह पानी दीवारों से निकल रहा है ,कही धीमा तो कही हल्का तेज ,जैसे की पतला झरना गिर रहा हो .दीवारों पर रौशनी के लिए चूने की पुताई की गयी थी | बहुत सी जगह ऊपर की छत को सहारा देने के लिए लकड़ी के मोटे -मोटे खम्बो का सहारा लिया गया था . हम जैसे -जैसे अन्दर की तरफ बढ़ रहे थे ठंडक भी बढती जा रही थी. उस ठंडक का असर कानों पर भी पड़ने लगा और कान  सुन्न पड़ने लगे .तभी ट्राली चालक ने एक जगह ट्राली रोकी और कहा की आप लोग अपने हेलमेट की रौशनी बंद कीजिये .हम लोग सब अच्छे बच्चों की तरह लाइट बंद कर के बैठ गए .उस अँधेरे गृह में जंहा अपना हाथ भी नजर न आ रहा हो वहा बिना रौशनी के दो चार पल गुजारना  किसी कड़ी सजा से कम नहीं था | हम सभी की सांसे हलक में अटकी हुयी थी  की तभी अगले पल आदेश हुआ की अब आप रौशनी चालू रख सकते है .हमने उत्सुकतावश पूछा की आपने रौशनी बंद क्यों करवाई थी | इस पर जवाब मिला की आप लोगो को बताने के लिए की यंहा बिना रौशनी के क्या स्थिति होती है .हमने मन ही मन कहा की जब रौशनी है तब तो ये सुरंग इतनी दमघोंटू है बिना रौशनी के कोई कैसे जी सकता है |लेकिन उस पल हमें ये अनुभव अवश्य हो रहा था की अगर किसी को मारना हो तो यंहा छोड़ दिया जाये और उससे सिर्फ इतना कह दे की  अब तुम्हे खुला आसमान  देखने को कभी नसीब नहीं  होगा  ,पक्का वो व्यक्ति पंद्रह मिनट के अन्दर ही खत्म हो जायेगा ||उस दिन हमें खुले आसमान का महत्त्व समझ में आया तब लगा की वाकई में जो वस्तु आसानी से उपलब्ध होती है उसके मूल्य का कोई अंदाजा नहीं लगाता |अब हम लोग उस जगह पर थे जंहा लिखा हुआ था की इस जगह के ऊपर दामोदर नदी बहती है |ये पढ़कर हम रोमांचित हो उठे की हम लोग जमीन के इतने नीचे है की हमारे ऊपर दामोदर नदी बह रही है और हमें इसका जरा सा भी आभास नहीं |मन किसी बच्चे की भाति आपने आप से ही प्रश्न करने लगा की अगर इसकी छत में सुराख़ हो जाये तो दामोदर नदी का पानी तो पूरी खदान को ही बहा ले जायेगा |दामोदर नदी के बीचोबीच पहुँच कर ट्राली रुकवाई गयी और बताया गया की इस खदान का काफी हिस्सा दामोदर नदी के उस पार और इस पार है |  इस  खदान का कुछ हिस्सा  पुरुलिया  में भी है.बातो के दौरान हम लोग छः किलोमीटर ( 6 km.)अन्दर पहुँच गए थे .पूरी खदान में ट्राली चलाने के लिए लोहे की पटरी बनी हुयी थी  इन्ही पटरियों पर कोयले की ढुलाई छोटी -छोटी  ट्रालियों द्वारा होती है.एक जगह  ट्राली रोक कर हम लोगो को नीचे उतरने के लिए कहा गया .वहा उतरकर हम लोग आगे गए जंहा पर हमने दो रास्ते देखे ,दोनों ही रास्ते पतली सुरंग नुमा थे ,एक पतले रास्ते पर ट्राली के जाने के लिए  ट्रैक बना हुआ था दूसरी तरफ सिर्फ रास्ता ही था .हमने पूछा ये दोनों रास्ते किस लिए है .मैनेजर ने जवाब दिया की ट्राली वाले रास्ते में कोयले  की खुदाई चल रही है ,और दूसरा वाला रास्ता बंद कर दिया गया है. क्योकि वंहा कोयला अब खोदने लायक नहीं बचा  है.  हमारे पूछने पर की यहाँ कितना कोयला है ,मैनेजर जी ने बताया की  अभी  ७२ मिलियन टन (72 million ton ) कोयला  निकालना बाकी है.
अब तक हम काफी अन्दर आ चुके थे ,हमें लगा की कही ऐसा न हो की इंजीनयर साहब हमें खुदाई वाली जगह दिखाने के लिए फिर से ट्राली में बैठने  के लिए न कह दे ,  अतः हम  तुरंत वापस जाने वाले रास्ते पर आ गए .हमारे साथ के लोग भी वापस जाने के मूड  में ही थे | इंजीनियर जी ने बताया की इस खदान में दो ट्राली वाली लिफ्ट है ,अगर एक ख़राब हो जाये तो दूसरी काम करती रहती है  .इस खदान में पाँच वर्षो  से  एक भी दुर्घटना नहीं घटी | यंहा ५५०  ( 550 ) श्रमिक दैनिक काम करते है.आदि -आदि .लेकिन सच ये था की अब हमारी दिलचस्पी उस खदान के बारे में  जानकारी एकत्र करने में कम  बल्कि  दो हजार फीट नीचे जमीन  के अनछुए  अनुभवों को बाटने में ज्यादा थी | वैसे भी हमारी यात्रा  अब समाप्ति की ओर  थी और हमारे पास था अनुभवों का बेहतरीन खजाना जिसे लुटाने के लिए हमें खुले आसमान की  अत्यधिक आवश्यकता थी .
आभार स्वरूप
एक चित्र चिनाकुड़ी खदान के मैनेजर , इंजीनियर  व् 'डी वेक ' टीम के साथ
.
अवैध खदान 
जिन खदानों  को सरकार बंद करा देती है उन्ही में अवैध खुदाई होती है वंहा कोई भी नहीं जा सकता क्योकि उन खदानों के पास माफियाओ के गुर्गे   निरंतर निगरानी करते रहते है |  ये खदाने सुरक्षा के दृष्टिकोण से बिलकुल सही नहीं होती क्योकि उन खदानों में जरूरतमंद जिन्हें काम की बहुत आवश्यकता होती है वही काम करते है |    इनमे काम करने वालो को पैसा भी अच्छा मिलता है | उन खदानों में काम करने वालों का कहना है की मारना तो ऐसे भी है तो फिर क्यों न काम करके मरे कमसेकम  परिवार का पेट तो भरेगा | ये खदान बाहर से पतली सुरंग जैसी होती है जिनका मुख्य द्वार इतना छोटा होता  है  की उसमे जाने के लिए इन्सान को झुक कर जाना पड़े .मजदूर इनमे मोमबत्ती के सहारे जाते है ,यंहा आक्सीजन की कोई व्यवस्था नहीं होती ,कितनी बार जहरीली गैस निकलने से मजदूर मर जाते है या कभी आग लग जाती है या अचानक पानी की तेज धार  फूट पड़ने से मजदूर हादसों के शिकार हो जाते है.इन खदानों  से हादसे के दौरान दुर्घटनाग्रस्त लोगो को निकालने के लिए  दूसरे दरवाजे की कोई व्यवस्था नहीं होती.ये बहुत ही खतरनाक होती है |सबसे बड़ी बात की अक्सर अवैध खदानों में होने वाले हादसों की खबर प्रेस में छपने नहीं दी जाती है या तो प्रेस को पैसा देकर चुप करा दिया जाता है या डरा -धमका के उस जगह से दूर रखा जाता है. जिस परिवार का व्यक्ति इस दुर्घटना में मारा जाता है उसे पैसे के बल पर शांत रखा जाता है .चूँकि  मारा जाने वाला  व्यक्ति अवैध खदान  का कर्मचारी होता है तो परिवार वाले भी पुलिस की जाँच के डर से चुप रह जाते है.

Monday 14 November 2011

'NARAYNI DEVI' BALUGAN (DIST.KHURDA ) ORISSA

  नारायणी  देवी मंदिर      
चिल्का लेक से लगभग २२ ( 22  km )  किलोमीटर की दूरी पर नारायणी देवी मंदिर है.ये मंदिर घने जंगल में है ,यहाँ जंगली जानवरों का बहुत भय रहता है.इस मंदिर की चढ़ाई बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि आप कुछ एक सीढिया चढ़ ने कि कल्पना कर ले . ऊंचाई है लेकिन पहाड़ो में बने मंदिर से काफी कम ऊंचाई  पर है. सीढिया चढ़ के सबसे पहले पानी का छोटा सा कुंड आता है ,इसमें पानी की पतली धारा बराबर गिरती रहती है .वंहा के लोगो का कहना है की किसी को पता नहीं ये पानी कहा से आता है और कहा जाता है.

कुंड  जिसमें निरंतर जल की धारा गिरती रहती है,
ये  कहा  से आती है और कहा जाती है किसी को इसका पता नहीं .
अन्दर में मंदिर ज्यादा बड़ा नही है ,मूर्ति भी मझोले कद की है.बाकि के मंदिरों की तरह यहाँ भी पण्डे चढ़ावा में ज्यादा दिलचस्पी लेते है व् प्रत्येक आने वाले भक्त को छोटी -छोटी जगह भी दक्षिणा देने के लिए कहते है .लेकिन उन लोगो की मांग हमें समझ में आई  वो इसलिए क्योकि उस जंगल के मंदिर में जाने वाले बहुत ही कम लोग होते है ,इसलिए उनकी आमदनी भी कम ही होती है.
शकुन त्रिवेदी ,नारायणी देवी  मंदिर के प्रवेश द्वार के  सामने 

मंदिर से वापस आने के लिए पहाड़ो को काट कर बनाया गया मार्ग.

नारायणी देवी मंदिर के जंगल में एक लंगूर बन्दर पानी पीता हुआ . 

नारायणी देवी   मंदिर में बत्तख 
नारायणी देवी मंदिर का बाजार 

Wednesday 9 November 2011

दुनियाँ की दूसरी बड़ी झील," चिल्का लेक "

भारत की  सबसे बड़ी व्  दुनियाँ की दूसरी बड़ी झील,
" चिल्का लेक " 
यू तो नाम बहुत सुना था ,ओड़िसा जाना भी कई बार हुआ लेकिन चिल्का तक   पहुंचना  पहली बार हुआ  . हम सभी बहुत उत्साहित थे ,चिल्का जाने के लिए .  हर बार की तरह कही भुवनेश्वर  एवं  पुरी तक सीमित न रह जाये इस लिए हम लोगो ने चिल्का जाने का कार्यक्रम सुनिश्चित कर लिया हलाकि जिस दिन हम पुरी  पहुंचे थे ,उस दिन समुद्र में नहाना नही हो पाया था ये बात अन्दर ही अन्दर खटक रही थी .एक बार मन में आया भी की क्यों न कल हम लोग पूरी के प्रसिद्ध समुद्री तट पर मस्ती करने आ जाये .हमने  अपनी इच्छा  अपने साथ के लोगो को बताई तो उन लोगो ने जवाब दिया की समुद्र में अक्सर नहाना होता है ,हम लोग अभी तक  चिल्का   नहीं पहुचे इसलिए इस बार हमे चिल्का जाना चाहिए . चिल्का दुनिया की सबसे बड़ी झीलों में से दुसरे नंबर की है एवं भारत की सबसे बड़ी झील , जिसकी लम्बाई ६४.३ किलोमीटर व् चौड़ाई १८ किलोमीटर है.  (1100 sq km. max.length ,64.3km.max.breadth,18 km.) बस दुसरे दिन सुबह आठ बजे हम लोग गाड़ी में बैठ कर रवाना हो लिए .जिस जगह से हम लोग चले थे उस जगह से चिल्का लेक की दुरी १०४ किलोमीटर थी और रास्ता  हाई -वे .लेकिन ये देखकर हमे बड़ा अचरज हुआ कि  इस हाई -वे पर इक्का -दुक्का वाहन ही थे. जैसे -जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे जंगल ही जंगल नजर आ रहा था. हमने अपने भतीजे से पूछा 'क्या ये रास्ता ऐसा ही सन्नाटे वाला रहता है.' उसने जवाब दिया कि 'ये रास्ता ऐसा ही है , हम पहले भी कई बार आ चुके है .यहाँ आबादी बहुत  कम है." 'इतना बड़ा पर्यटन स्थल और आबादी इस तरफ न के बराबर . रास्ते के  दोनों ओर छोटी -छोटी पहाड़िया और हरियाली ही हरियाली थी प्रकति का ये सुन्दर नजारा मन को मोह रहा था ,लेकिन अन्दर ही अन्दर एक सवाल भी था कि अगर यहाँ अकेले छूट गए तो वापस जाना कितना मुश्किल होगा.या गाड़ी ख़राब हो गयी तो घंटो खड़ा रहना पड़ जायेगा .खैर हम लोग बलुगन तहसील (खुर्दा जिला, ओडिशा )में पहुँच गए उस छोटी सी जगह को प्रसिद्ध बनाने वाली चिल्का लेक में हमें काफी पर्यटक नजर आने लगे लेकिन इनमे से अधिकतर दूर -दराज गावों से आने वाले स्थानीय लोग  ही थे जो अपने मन में अपार श्रद्धा लिए हुए चिल्का झील के टापू पर स्थित कलिजय मंदिर के दर्शन करने के लिए आये थे .जैसे ही हम लोग अन्दर की तरफ चिल्का झील जाने वाले रस्ते की तरफ आये ,सामने ही   एक छोटी सी दुकान जिस पर बिस्किट, चिप्स ,व् अन्य खाने वाली वस्तुए  रंगीन प्लास्टिक  पैकेट्स में सजे हुए थे .जबकि चिल्का प्रांगन में बड़े -बड़े  वाक्यों में लिखा है की "चिल्का झील में पोलीथिन फेकना मना है."ये देखते ही मन ख़राब हो गया की एक तरफ मना लिखते है और दूसरी तरफ दुकान लगाने की स्वीकृति देते है.


अब बारी थी चिल्का झील घूमने  की उसके लिए नाव लेना था .ऐसे तो नाव का टिकेट  60  रूपये है ,लेकिन अगर नाव आरक्षित करानी  है तो उसका रेट अलग है ,हम लोगो ने सात सौ रूपये ( Rs. 700)दे कर अपने लिए नाव आरक्षित करायी. चूँकि वहा पर्यटक ज्यादा थे इसलिए आरक्षित नाव जो हम लोगो के हिस्से में आई उसकी हालत बड़ी जर्जर थी. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं था. इसलिए हम सब बिना  ना नुकुर  किये नाव पर सवार  हो कर चल दिए . नाव में बैठते ही फोटोग्राफी आरम्भ हो गयी .हमें तो वैसे ही सुन्दर -सुन्दर  चित्रों  को कैमरे में कैद करने का नशा है .इसका दुष्परिणाम कई बार सामने आता है की जो लोग हमारे साथ होते है उनकी तो तस्वीर हम ले लेते है लेकिन मेरी कोई नहीं लेता .जब दो चार बार  हमारे साथ ऐसा हो चुका तो हमने भी सीख लिया की पहले मेरी फोटो लो उसके बाद अपनी खिचवाओ .झील  में स्थित हरे -भरे छोटे -छोटे टापू नजर आ रहे थे .और उनमे चलने वाली सवारियों से भरी  बोट बड़ी ही अच्छी लग रही थीं .एक -एक चित्र हम कैमरे में कैद कर रहे थे  की अचानक नाव डगमगाने लग गयी ,हमें समझ में नहीं आया लेकिन हमारे साथ जो स्थानीय लोग थे उनके चेहरे पर हवाईया उड़ने लगी .इससे पहले हम समझते नाव  वाला नाव के बैलेंस को बनाने के लिए कभी इधर तो कभी उधर हो रहा था . हम भी अपने कैमरे को बंद कर शांति से बैठ गए .लेकिन मन हमारा शांत नहीं था  .लोगो का मानना है  की  चिल्का झील कभी किसी की बलि नहीं लेती फिर वो आज कैसे ले सकती है ,क्या हम लोग इतने पापी है .हमने अपने ध्यान को बाटने के लिए अपने साथ आ ने वाले स्थानीय व्यक्ति से पूछा की कलि जय का मंदिर किसने बनाया है और ये इसी टापू पर क्यों बना है ?

मोटर बोट की आवाज सुनकर उड़ते  हुयी पक्षी ,
टापू जिस पर कलिजय स्थित है ,पानी में तेजी से उठती हुयी लहरे .
    उसने बताया की बानपुर गाँव की एक लड़की जिसका नाम जय था अपने पिता के साथ  परिकुदा   गाँव में अपनी शादी  के लिए जा रही थी  रास्ते  में उसकी नाव डूब गयी लेकिन जितने लोग उसमे सवार थे सब के सब बच गए सिवाय उस लड़की के .बाद में लोगो ने उस लड़की की आवाज सुनी जो कह रही थी की इस टापू पर माँ काली का मंदिर बनाओ.  वहा के  राजा  ने टापू पर मंदिर बनाया और इसका नाम कलीजय रखा .तबसे लेकर आज तक चिल्का झील ने किसी की बलि नहीं ली. यही कारण है ओड़िसा के लोगो में इस मंदिर के लिए अपार श्रद्धा है. किन्तु मछ्वारो की कलीजय इष्ठ  देवी है. इनके दर्शन किये बगैर मछुवारे अपना कोई भी शुभ  काम  नहीं करते .किन्तु इतिहास में इसके बारे में बताया जाता है की इस मंदिर को बानपुर के राजा श्री जगन्नाथ मानसिंह ने १७१७ ने बनवाया था .
दूर से दिखाई देता कलिजय मंदिर 

कलिजय मंदिर 

बाते करने में समय आराम से निकल गया और तेजी से उठती लहरों का डर भी. हमें  कलिजय  पहुँचने में ४५ (45 )  मिनट का समय लगा  जबकि दूर से देखने में लग रहा था की बस  अभी पहुँच जायेंगे .  वंहा काफी भीड़ थी उड़िया भजन का कैसेट चल रहा था.समझ में नहीं आ रहा था लेकिन सुनने में कर्णप्रिय था.


कलिजय मंदिर का पुजारी दर्शनार्थियों के साथ.
हम लोग जब मंदिर के अन्दर पहुंचे तो वहा आरती हो रही थी ,हम सब आरती में शामिल हो गए  उसके बाद वहा के पुजारी ने मंदिर का दरवाजा बंद किया |अन्दर में  कलिजय को भोग लगाया गया उसके बाद उसने अपने शागिर्द को आदेश दिया  ' भोग चिल्का को  खिला दो ' .पूजा करने के बाद हम  लोगो ने घी के दीपक जलाये जो प्रसाद के साथ दिए जाते है उसके बाद  चूड़ियाँ शीतला देवी जो छोटे से कद में बाहर की तरफ स्थित है उनके  उपर बांध  दी .पूजा ख़त्म कर हम लोग फिर से फोटोग्राफी के मैदान में कूद गए हर कोई अपनी अपनी बेहतरीन फोटो खिचवाने में लगा था की तभी हमारे साथ जो                      
    स्थानीय व्यक्ति था बोला "जल्दी चलिए एक घंटे से ऊपर हो गया है ,नाव वाला वापस चला          जायेगा |".उसकी बात सुनकर हमें हंसी आ गयी ,की इसने हम लोगो को बच्चा समझ रखा है जो कह रहा है की नाव वापस चली जाएगी जबकि नाव  रिजर्व करा के  लाये है .लेकिन हम लोग  तुरंत निकल लिए क्योकि हमें खाना भी खाना  था और उसके बाद नारायणी देवी के मंदिर में जाना  था  जो की घनघोर जंगल में है.

मन्नत पूरी करने के लिए  बाँधीं गयी चूड़ियाँ 


Sunday 6 November 2011

हम पानी क्यों ख़रीदे.


गौरी कुंड से केदारनाथ  के पैदल जाने वाले मार्ग में बहती हुयी मन्दाकिनी.
ये नदियाँ  अपने साथ बहुत कुछ ले जाती है  जैसे की यूस एंड थ्रो वाले कप -प्लेट व पानी की बोतलें और बरफ से बचने वाले रेनकोट जो बीस तीस रूपये में आसानी से मिल जाते है ,किन्तु एक बार पहनने के बाद इस लायक नहीं बचते की कोई उन्हें अपने साथ वापस ले जा सके  इन्हे  नदियों के सुपुर्द कर  दिया जाता है या फिर अधिकतर तीर्थयात्री इन सबको   खाई के हवाले कर आगे बढ़ जाते है.
केदारनाथ में मन्दाकिनी के किनारे दर्शनार्थी 
 मिनरल वाटर की कंपनी लगने की बात अखबारों की सुर्खिया बनने लगी तो लोगो को आश्चर्य  होने  लगा  की क्या पानी भी बेचा जायेगा और अगर बेचा गया तो इसे खरीदेगा कौन?आश्चर्य की बात तो थी ही जिस भारत में सैकड़ो नदियाँ बहती हो,जगह -जगह पानी के सोत्र हो वंहा पानी खरीदने की चीज है.
पहाड़ो से गिरता हुआ पानी
इसका स्वाद किसी बिसलरी से कम नहीं .किन्तु आजकल पर्यटन स्थल में   इनके पानी को पीने की मनाही है.कहते है की कई बार पहाड़ी स्रोतों से निकलने वाला जल विषाक्त होता है.



समय के साथ लोगो की सोच बदली उन्हें समझ में आने लगा कि साफ पानी तो बंद बोतलों में ही मिलता है .बाकी का पानी प्रदूषित हो चुका है . बस इसी सोच ने लगभग २०० कंपनिया  बिसलरी पानी की खुलवा दी .भविष्य में भी इनका बाजार दिन -दूनी ,रात -चौगुनी रफ़्तार से बढ़ना है .क्योकि जिस तरह से स्वच्छ पीने का पानी बंद बोतलों में मिलता है उसी तरह से कल को लोग खाना बनाने से लेकर नहाने तक के लिए पानी बंद बोतलों में ही खरीदेंगे .तब ये बोतलें  उच्च जीवन शैली कि पहचान ही नहीं वरन आवश्यकता बन जाएगी .
जिस तरह से नदियों को कल-कारखानों के जहरीले रसायन द्वारा विषाक्त किया जा रहा है आने वाले दिनों में किसान उस पानी से खेती भी नहीं कर पायेगा. हमारे वैज्ञानिक अनुसन्धान करके लोगो को  चेताना चाहते है , की उनकी लापरवाही और लोभ आने वाले भविष्य को किस तरह से नष्ट करने वाला है .लेकिन प्रशासन और सत्ता के कानो पर जू तक नहीं रेंग रही है.सरकार कभी क्लीन गंगा तो कभी क्लीन जमुना की योजनाये बना कर सरकारी दफ्तरों से अर्थ मुहैया कराती है और सरकारी बाबु से लेकर जितने इन योजनाओ से जुड़े हुए रहते है सब अपनी जेबे गरम कर स्थिति की गंभीरता से मुंह मोड़ लेते है .
Drainage in Ganga at Bellurmath, Kolkata
वे ये भी सोचने का प्रयास नहीं करते की आने वाला समय उनके बच्चो के लिए कितना त्रासदी भरा होगा. जब नदिया ही नहीं बचेगी तो जल कहा से आयेंगा, जल नहीं तो जीवन नहीं .कैसे जियेगी आने वाली पीढ़ी देश -विदेश में पानी  के ऊपर रिसर्च करने वालो ने घोषणा  कर दी है की 2035  तक  भारत में गंगा .सिन्धु ,ब्रह्मपुत्र व् चीन में सबसे बड़ी नदियाँ यांग्जी,मेकोंग,साल्विन और पीली नदी पृथ्वी से गायब हो जाएँगी .वैसे भी चीन इस समय पानी की सबसे अधिक किल्लत झेल रहा है .यांग्जी जो दुनिया की तीसरी बड़ी नदी है उसमे कैंसर के जीवाणु पाए जा रहे है .पीली नदी इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी है कीअनुसंधकर्ताओ के अनुसार  वो आने वाले पाँच वर्षो में ही ख़त्म होने वाली है .चीन की नजर अब भारत की नदियों पर है ,उसने ब्रह्मपुत्र के पानी को रोकने के लिए उस पर  बांध बनाना आरंभ कर दिया है . इधर पाकिस्तान में पानी की भयंकर समस्या है .वो संसार में शीर्ष दस (पानी की समस्या से ग्रस्त ) में से सातवे स्थान पर है. पानी को लेकर उसका विवाद भारत से बराबर चल ही  रहा है. इस विवाद का मुख्य कारण झेलम नदी पर बांध बनाना. ये बांध आजाद कश्मीर की मांग से भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है.ऐसे में भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध वाली स्थिति का सामना करना पड़ सकता है .बंगलादेश ,गंगा के ऊपर बनाये गए फरक्का बांध से नाराज है ही वो भी भारत के खिलाफ खड़ा होगा .ऐसी स्थिति आने  पर भारत बहुत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा होगा.एक तरफ पानी के लिए युद्ध दूसरी तरफ पानी के आभाव में भारतीयों के स्वास्थ्य का क्षरण कैसे  झेलेगा भारत.इसलिए बेहतर यही है की हर भारतीय समय की गंभीरता को समझते हुए नदियों को प्रदूषित होने से बचाए .नदियाँ बचेगी तो कृषि बचेगी ,कृषि बचेगी तो पेट भरेगा ,जब पेट भरेगा तब देश  के लिए सोचेंगे .स्वस्थ शरीर के साथ ही दुश्मन के छक्के छुड़ाने की चेष्टा करेंगे अन्यथा 1962  के युद्ध में हमने चीन के आगे घुटने टेके थे .इस बार चीन, पाकिस्तान ,बंगलादेश तीनो एक साथ होंगे. क्या हम इतिहास दोहराना चाहेंगे, नहीं न ,तो फिर क्यों न नदियों को प्रदुषण रहित बनाने के बारे में गंभीरता से सोचे और अविरल , निर्मल,धवल ,कल-कल बहती हुयी नदियों के स्वरूप को वापस लाये. बोतलों में बिकते हुए पानी को खरीदने की बढती हुयी संस्कृति पर अंकुश लगाये. 
केदारनाथ में बहती हुयी  मन्दाकिनी  ,
इसकी सतह के ऊपर बने हुए होटल और धर्मशाला 

इनसे निकलने वाली गंदगी इसी नदी के सुपुर्द की जाती है. 

बद्रीनाथ धाम में अलकनंदा के किनारे मनोज त्रिवेदी ,शकुन त्रिवेदी 
  यंहा भी अलकनंदा नदी गंदगी से अछूती नहीं है.