Friday 12 August 2011

विस्मृतियों की धुंध में समां गए शहीद




  "कुछ आरजू नहीं है ,है आरजू बस इतनी 
                          रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफ़न में "                 
 (अशफाक उल्ला खान रचित 

इन पंक्तियों को पढ़ते ही मन १९४७ के पहले देश के लिए अपना  सर्वस्व न्योछावर करने वाले शहीदों  की याद में खो गया |  देश प्रेम के इस जज्बे ने अचानक एक विचार को जन्म दिया क्यों न इस बार  बच्चो से अपने देश के शहीदों के बारे में पूछा जाये ,पता तो चले की हमारे देश के बच्चे जो अच्छे स्कूलों में  पढ़ रहे है उन्हें कितनी जानकारी है अपने उन शहीदों की जिन्होंने देश को आजाद  कराने के लिए पागलपन की हद को भी पार कर लिया था | फिर क्या था योजना बना कर हम पहुँच गए एक स्कूल में उपरोक्त विषय पर गोष्ठी कराने | जिस स्कूल में ये गोष्ठी आयोजित की थी वंहा  बच्चे पहले से ही इंतजार कर रहे थे |उन्हें इंतजार करते देख हमने पूछा आप लोग यंहा क्यों बैठे है |जवाब आया "पता नहीं मैम" |हमने कहा " अच्छा आप बताइए १५ अगस्त क्यों मनाया जाता है ? एक साथ कई बच्चे बोल पड़े " इस दिन हमें आजादी मिली थी |" " तो आप   ये बताइए ये आजादी हमें किसने दिलवाई थी | "तत्काल उत्तर आया " गाँधी जी " हमने कहा "वेरी गुड " दुसरे बच्चे ने जवाब दिया "नेहरु जी ने " | तीसरे बच्चे ने कहा "इंदिरा गाँधी "  | इंदिरा गाँधी नाम सुनकर हमें हंसी आ गयी वहा बैठे शिक्षक भी हँसने लगे |तब तक एक आवाज आई " हम बताये मैम ,हम बताये मैम " | हमने कहा " हाँ  बताओ " "डॉ. मनमोहन सिंह " | ये सुनकरजितने भी वंहा उपस्थित थे सभी खिलखिलाकर हँसने लगे |उन बच्चों की बाते सुनकर हमें लगा ये बच्चे छोटे है शायद दसवी कक्षा या उससे भी कम कक्षाओ में पढ़ रहे है इसी वजह से इन्हें शहीदों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है |एक दिन हमने मेट्रो स्टेशन पर कुछ लड़के लडकियों  को देखा जो दिखने में कालेज के स्टुडेंट्स लग रहे थे | बस फिर क्या था पहुँच गए उनके पास अपना विषय लेकर और पूछा की क्या आप हमे बंगाल के दस स्वतंत्रता सेनानियो के नाम  बतायेगे  | इस पर वे लोग जो कानो में मोबाइल का  हैड फोने लगाये अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा संगीत प्रेमी साबित करने में लगे थे ,उन्होंने पहले तो हमारी तरफ ऐसे देखा जैसे हमने मंगल गृह के बारे में पूछा हो फिर अपना प्रश्न दुहराने के लिए आग्रह किया | हमने अपना प्रश्न  पुनः दुहराया तो उसने  तपाक  से जवाब दिया "ममता बनर्जी" | उसने जिस आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया था वो मेरी मंद मंद मुस्कान के सामने डगमगाने लगा उस पर स्वीकृति की मुहर लगवाने के लिए वो अपने दोस्तों की तरफ मुडा   इससे पहले उसे कोई जवाब मिलता तब तक मेट्रो आ गयी और हम सब अपने -अपने गंतव्य  की तरफ बढ़ गए | लेकिन मन में एक सवाल घुमड़ने लगा "क्यों   भुला बैठे हम शहीदों को ?" क्या हम खुदगर्ज है ,  एहसान फरामोश है,आजादी के मूल्य को समझ नहीं पा   रहे  है या  कुछ और  | इतने सारे सवाल एक के बाद एक नश्तर चुभो रहे थे |बार -बार मन पूछता क्यों भुला बैठे हम शहीदों को ? १९४७ के बाद जब अतीत को खगालने की कोशिश की तो एक के बाद एक परते खुलने लगी ,मैंने अपने आप से कहा आजादी अभी अधूरी है |  प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने के लिए परेशान है ,चारो और भागमभाग है.ये भाग -दौड़ दो जून की रोटी जुटाने की हो या मकान बनाने की हो बेटी की शादी ,बेटे की शिक्षा या वातानुकूलित गाड़ी खरीद कर रिश्तेदारों और दोस्तों  के सामने सीना चौड़ा कर घुमने की  ,कारण कुछ भी हो पर है सब व्यस्त, इस व्यस्तता के दौर में कैसे उम्मीद की जा सकती है   भारत की जनता से की  वो दशको पुराने आजादी के हवन में होम होने वाले शहीदों को याद रख सके |वैसे भी चौसठ वर्षो की आजादी में हमने क्या नहीं झेला ,क्या नहीं सहा |कभी प्राक्रतिक आपदाएं ,तो कभी नेताओ का कुर्सी पर पकड़ बनाये रखने के लिए जनता को जाति-पांत, छुआ -छूत,भाषा ,धर्म  जैसे समूहों में बाटना |कभी देश के पालनहारों का भ्रष्टाचार के कुए में इतना गहरे उतर जाना की ऊपर का खुला आसमान ही नजर आना बंद हो जाये |१९४७ से अब तक कितने घोटाले हुए है उनपर नजर डाली जाये तो ये कहने में आपत्ति नहीं होगी की भारत ने आजादी के बाद जिस क्षेत्र में सबसे ज्यादा उन्नति की है वो भ्रष्टाचार का ही क्षेत्र है | दूसरा काम  जिसे  भारत के कर्णधारों ने  बखूबी अंजाम दिया  वो है देश को आरक्षण जैसे मुद्दे में विभाजित करना |आर्थिक आधार पर जनता को मदद न पहुचा कर उसे जाति के आधार पर बाँट कर मदद देने का प्रयास करना जिसे हम सभी वोट बैंक की राजनीति कहते है |इसे पूरा करने के लिए नेताओ ने कितनी बार देश को आग के हवाले कर दिया  जैसे की जाट आन्दोलन ,गुर्जर आन्दोलन ,मंडल कमीशन ,राम मंदिर या प्रादेशिक राजनीति से प्रेरित होकर  अनगिनत कारणों को जन्म देना जो अपने ही लोगो का खून बहाने लगे |भारत की जनता भी उन्हें अपना शुभचिंतक मान कर उनके  इशारो  पर नाचने लगी  बिना  ये  विचारे  की  उनकी घटिया सोच और   संकरीन मानसिकता  देश को टुकडो में बाटने का प्रयास कर रही है |सच तो ये है की आज भी भारत में ऊँची -ऊँची कुर्सियों पर बैठे ऐसे लोगो की कमी नहीं है जो नोटों के मोहपाश में बंधे  इस देश को छोटे -छोटे खंडो में बाटने के लिए आतंकवाद ,को रास्ता दे रहे है ,सत्ता को अपने बाहुपाश में सदा के लिए जकड़ने  खातिर   नक्सलवादियो के साथ मिलकर काम कर रहे है| ऐसे लोगो से कैसे उम्मीद कर सकते है की वे हमारे देश के बच्चो को शहीदों के बारे में बताएँगे या आम जनता को उत्साहित करेंगे की वो अपनी समस्याओ से चंद पल निकाल कर विगत दिनों की यादो को ताजा कर  अपने भूले बिसरे शहीदों के जुनून को याद कर सके | वो भी उन शहीदों के बारे में  जिन्हें भारत के आजाद होने से पहले ही कुछ  शीर्सस्थ  नेताओ ने आतंकवादी की संज्ञा दे दी थी |ऐसे नेताओ के बयां बाजी से दुखी होकर ही किसी कवि ने अपनी पीड़ा को कुछ इस तरह से शब्दों का जामा पहनाया है ,
    "भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की 
       देशभक्ति की सजा आज भी यंहा मिलेगी फंसी की "

हमारे देश में देशभक्तों को कोई याद नहीं रखता ,इसका सीधा उदाहरन है सीमा पर अपने कर्तव्य को अंजाम देने वाले फौजी ,वे लोग कश्मीर की घाटियों में बिना सर्दी की परवाह किये पाकिस्तान के नापाक इरादों से भारत को बचाए हुए है जो लोग आतंकवादियों से प्रत्येक दिन मोर्चा लेते है क्या हम कभी उनकी तकलीफों के बारे में सोचते है ,कभी जानने की कोशिश करते है की वे लोग आये दिन पाकिस्तानी गोलियों   और आतंकवादियों की गोलियों  व् बमों का शिकार बन रहे है |उनका भी परिवार होगा वो किस हाल में होगा |क्या ये हम सब भारतीयों के सोचने का विषय नहीं है शायद कदापि नहीं |क्योंकी हम सबने अपने हाथ ये सोचकर झाड़ लिए की ये सरकार की जिम्मेदारी है की उन्हें फौजियों व् उनके  परिवार लिए क्या सुविधाए मुहैया  करानी है  |जबकि सरकार ने अपने दायित्व की इतिश्री ज्यादा से ज्यादा योजनाओ को कागजो का जामा पहनाकर ,लोगो को झूठे सपने दिखाकर ,अपनी वाहवाही  लूटकर  कर ली है  |सरकारी तंत्र को फोजियो के परिवार की बदहाली नजर नहीं आती है |उन्हें तो ये भी समझ में नहीं आता है की जिस फ़ौज की बदौलत देश सुरक्षित है वे लोग जब किसी गोली या दुर्घटना के शिकार हो जाते है और उन्हें समय से पहले ही फ़ौज छोड़कर जाना पड़ता है तब उनकी स्थिति क्या होती है | उस फौजी का इलाज उसके परिवार की आर्थिक स्थिति  सुचारू रूप से चल पा रही है या नहीं ये भी सोचने का विषय नहीं रह जाता है |अधिकतर नेताओ का   देश  के प्रति क़ुरबानी देने वाले लोगो के प्रति क्या भावना होती है ये २६/११ कांड में शहीद हुए संदीप उन्नीकृष्णन के लिए वंहा के मुख्यमंत्री ने अपने बयां में जाहिर कर दी थी (शहीद न होते तो कुत्ता भी दरवाजे पर न आता )हेमंत करकरे जैसे कर्तव्यपरायण   पुलिस अफसर जो  इस हमले  का शिकार बने उन को भी नहीं छोड़ा  | २६/११ में ही शोर्यचक्र पाने वाले नायक मनीष के सर में हैण्ड ग्रेनाड के कुछ टुकड़े घुस गए थे जिसके चलते उन्हें दो महीने कोमा में रहना पड़ा होश में जब आये तब पता चला की बाद में उनके शारीर का एक हिस्सा बेकार हो गया  
उसके इलाज के लिए प्रत्येक सप्ताह उन्हें अपने गाँव से शहर जाना पड़ता ,आर्थिक स्थिति अच्छी न होने से वे बिना टिकेट रेल में चढ़ गये किन्तु अफ़सोस ऐसे देशभक्त को बिना टिकेट रेल में यात्रा करने पर उस रेल के टीटी ने नीचे उतर जाने को कहा |आखिर क्या मिला उसे अपने लोगो की जान बचाने का   पुरस्कार ,बेइज्जती ,शर्मिंदगी | 
             सच तो ये है की जो इस देश को कुछ देता है    सत्ता में बैठे लोग उसे देखते ही नहीं  |  जैसे किसान अपने कंधो पर पूरे देश का पेट भरने की जिम्मेदारी को उठाये हुए है लेकिन  उसकी बदहाली उसकी परेशानी ऊपर बैठे नेताओ को दिखाई ही नहीं देती उन्हें तो ये भी नजर नहीं आता की सन १९९५ से अब तक आत्महत्या करने वाले किसानो का आंकड़ा कई हजार की संख्या को पार कर चूका है  |वरिष्ठ नामी पत्रकार पी. साईनाथ जो ग्रामीण अंचलो में काम करते है उनके अनुसार प्रत्येक बारह घंटे में दो किसान आत्महत्या कर लेते है |लेकिन इससे भारत सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता |अगर उनकी मौत  से  इन संगदिल  कृषि मंत्रियो  की पेशानी पर जरा सी भी शिकन उभरती तो  गोदामों के बाहर  गेंहू ,दाल ,आलू ,प्याज ,टमाटर सड़ते नजर नहीं आते |खुद को भ्रष्टाचार  का शहंशाह बनाकर आरबो की सम्पति विदेशी बैंको में जमाकर ऐश नहीं करते |१९४७ से लेकर अब तक घोटालो का परचम लहराने वाले राजनेताओ ने एक ही उद्देश्य बनाया है ,विकास के नाम पर कागजी कारवाई  ,कागज से उतर कर यदि लागु  करने की योजना बनायीं गयी तो नेता से लेकर दलालों तक की जेबे भर गयी किन्तु जरूरतमंद लोगो तक नहीं पहुच सकी |गरीबी के मारे बेचारे दो समय के खाने को जुटाने के लिए अपने बच्चो का सौदा करने लग गए  |पढने की उम्र में उन्हें किसी चाय की दुकान ,होटल या किसी भट्टी के सुपुर्द करने लग गए .लेकिन संगदिल सत्ताधारियो का दिल नहीं  पसीजा वे अपने वोट बैंक को बढ़ाने खातिर  मंडल आयोग ,आरक्षण ,राम मंदिर जैसे मुद्दों को   लेकर आये जिसने पूरे देश में हिंसा को बढ़ावा दिया .खुनी खेल खेलने वाले आराम से अपने घरो में बैठकर स्विस बैंक में पैसा जामा करने की योजनाये बनाते रहे और देश जाट ,गुर्जर जैसे आंदोलनों की जमी बन जलता रहा |सत्तालोलुप लोगो के लिए देशभक्ति या देशभक्त मायने नही रखते उनके लिए भारत का राष्ट्र गान व् गीत भी अहमियत नहीं रखते वे सिर्फ उनकी हा हुजूरी करने में विश्वास रखते है जो उन्हें उनके लक्ष्य को पाने में साथ दे यही मुख्य कारण है केंद्र में बैठे लोग आजदी के लिए दी गयी कुर्बानियों में  नेहरु ,गाँधी के आलावा दो चार नाम ही जानते है या जानना नहीं चाहते |वीर सावरकर  जिन्हें  भारत को आजाद  कराने  के  लिए कालेपानी की सजा हुयी थी वो भी सश्रम दो आजीवन कारावास |वो  सारे दिन कोल्हू में बैल बनकर तेल निकलते थे और रात के अँधेरे में किसी नुकीली वस्तु से कोठरी की दीवारों पर अपनी ओजस्वी कविताये लिख कर याद करते और सुबह की पहली किरण के साथ उन्हें मिटा देते जिससे की अग्रेज सैनिक उनकी रचनाये  देखकर उन्हें और यातनाये न दे |ऐसे वीर क्रन्तिकारी द्वारा सेलुलर जेल में लिखे सन्देश को हटा कर गाँधी जी का सन्देश लिखा गया क्यों की हटाने का फरमान जरी करने वाले अपने आकाओ को खुश  करना चाहते थे |ऐसे लोगो से आप क्या अपेक्षा करेंगे की वे हमारे शहीदों की यादो का जीवित रखेंगे |

कडवी सच्चाई ये है की अगर आप का नेता सशक्त नही है |उसका शासन सुचारू रूप से नही  चल रहा है तो वहा इतिहास के पन्ने पलटाये नहीं जाते वरन रोजी ,रोटी ,मकान ,कपडा ,इलाज जैसी दैनिक आवश्यकताओ की रस्सियों की जकदन ढीली करने की कोशिश की जाती है और ये समस्या भारत की ही नहीं बल्कि अनेक अविकसित देशो की है जहाँ इन्सान दो समय की रोटी जुटाने में अतीत और भविष्य दोनों को ही भूल बैठता है |फिर जिस देश में समस्याओ की लम्बी कड़ी हो वहां मुड कर नहीं देखा जाता है ,देखा जाता है तो सिर्फ अपनी जरुरतो को जिन्हें पूरा करने की कोशिश में सर्दी -गर्मी -बरसात में भी व्यक्ति व्यस्त रहता है |उस जनता से हम कैसे उम्मीद कर सकते है की वो अपने देश के शहीदों को याद रख सकेगी | हाँ किसी कवि की मन को छू  लेने वाली इन पक्तियों के साथ अपना रोष व् शर्मिंदगी अवश्य प्रकट कर सकते है .
"तुम्हारे खून (शहीदों ) की कीमत पर जो खरीद -फरोख्त है सत्ता की 
उस पर हम सामूहिक शर्म करते है 
चिल्लू भर पानी की आस में रोज थोडा -थोडा मरते है "