Tuesday 3 January 2012

Kya pros rahe hai ham Bachcho ko ?

क्या परोस रहे है हम बच्चों को ?
फोन पर बच्चे की प्यारी सी हंसी की खनक
जब हेल्लो के साथ सुनाई देती है तो  दूर बैठे  अभिभावक  का सारा तनाव  गुम हो जाता है .
दांत के डाक्टर के पास बैठे हम अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे की तभी लगभग छः वर्ष की बच्ची ने अपनी माँ के साथ  चैंबर  में प्रवेश किया, उसे देख कर हम मुस्कुरा दिए जो उसे नागवार गुजरा और उसने दूर से बैठे -बैठे जवाब दिया भप -भप | तब तक अन्दर से उसके लिए बुलावा आ गया .हमने उसे छेड़ते हुए कहा ,"बहुत भप -भप कर रही थी ,जाओ -जाओ अब डाक्टर तुम्हे सुई लगाएगा" .बच्ची तो चली गयी लेकिन छोड़ गयी एक सवाल. क्या बच्चों के भविष्य के साथ हम खिलवाड़ कर रहे है ? क्या हम उनके प्रति लापरवाह है? क्या एक -दूसरे की देखा-देखी वाली दौड़ का हिस्सा है ? क्यों छोटे -छोटे बच्चे दांतों की शिकायत के साथ नजर आते है |क्यों बच्चे आँखों पर मोटा चश्मा लगाये दीखते है? क्यों बच्चे सर दर्द के नाम पर दवाइयों को  गुट्कते  रहते है ? ये वो कारण है जिनके जवाब हमें हर दुसरे घर में दिख जाते है, क्योकि आज अधिकतर बच्चे दूध नहीं पीते बल्कि कोल्ड ड्रिंक्स पीते है ,खाने में दाल,चावल, रोटी ,सब्जी कम खाते है चाइनीज ,पिज्जा ,बर्गर ,केक ,पैडिस आदि न जाने कौन -कौन सा फ़ूड खाते है.  अधिकतर मम्मियों को टीवी के धारावाहिक देखने से ही फुर्सत नहीं इस बीच अगर बच्चे ने खाना मांग दिया तो  नुडल्स या सूप बस दो मिनट की तर्ज पर हाजिर .बच्चे भी खुश और मम्मी भी .कामकाजी महिलाओ के पास समय नहीं बनाने का इसलिए वे टिन  पैक्ड  फ़ूड पर भरोसा करती है या होम डिलीवरी से काम चला लेती है .रविवार घर के जरुरी काम निपटाने के लिए होता है और शाम  RESTAURANT  में खाना खाने के लिए . सब कुल मिला कर सात दिनों में शायद ही तीन या चार दिन होते हो जब बच्चे घर का बना खाना खाते हो . "मीठे में खुछ हो जाये"  और वो चाकलेट हो तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है . वैसे भी आधुनिकता की परिभाषा ही यही है की जी भर देशी -विदेशी   चौकलेट  खाओ और दांत के डाक्टर के पास लाइन लगाओ .दूध ,दही सलाद ,चने ,भुट्टे ये सब बेकार की बस्तुये है जिन्हें बच्चे छूना तो दूर देखने से भी बचते है .वैसे भी ये वस्तुएं पुराने फैशन के पर्याय है , पुराने फैशन के खान -पान से गाँव के बच्चे भी कैसे जुड़े रह सकते है .अब वे बगू कोल्ड ड्रिंक की बोतल लाल ,हरे ,नीले ,पीले पैकेट में चिप्स ,बिस्किट लिए दीखते है .गाँव की छोटी -छोटी गुमटीनुमा दुकानों में गर्मी के दिनों में छोटे  से लेकर बड़े आकार तक की बोतले झूलती  हुयी नजर आती है .जिन्हें अपने मेहमानों की खातिरदारी में पेश करना गौरव की बात समझी जाती है .ये गौरव तब और बढ़ जाता है जब आप का बच्चा कानो में हेडफोन  लगाये मोबाइल पाकेट में डाले आने वाले मेहमान के सामने खड़ा हो जाये या फिर किसी वीडियों गेम पर गेम खेलता दिख जाये या आपका नन्हा -मुन्ना टीवी के सामने आँखे चौड़ी किये कुत्ते -बिल्ली और चूहे को भागते  देख रहा हो .
टीवी का नशा .

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किन्तु इस थोथे अभिमान में या ग़लतफ़हमी में हम ये भूल जाते है की हम अपने बच्चो को परोस क्या रहे है.एक कमजोर शारीर जिसके पास दिमाग तो है लेकिन वो  केलकुलेटर  के बिना काम नहीं करता ,जुबान है तो किसी मनपसंद विज्ञापन या  फिल्म  और टीवी के किसी चरित्र के बोल  बोलने के लिए .कान है तो हेडफोन लगाये गाने सुनते है .हाथ है तो मोबाइल और कंप्यूटर पर गेम खेलते है.दिमाग होते हुए भी बच्चे मशीनों के बीच रहकर खुद मशीन बनगए .आज उनके पास अपने परिवार वालो के लिए समय नहीं है और न ही परिवार वाले जानना चाहते है की उनके बच्चो को क्या चाहिए .बच्चो को समय न दे पाने की असमर्थता को वो बच्चो की मांग के  अनुसार वास्तु दिला कर पूरी कर लेते है या फिर उसे विडियो गेम की नयी सीडी दिला कर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते है. और बच्चा उनकी कमी को  मशीनों से पूरा करने के लिए विवश है .उन मशीनों से जिन्हें जरुरत पड़ने पर उपयोग करने के लिए बनाया गया है न की उन्हें नशे के रूप में इस्तेमाल करने के लिए . ये नशा बच्चो को कितना महंगा पड़ेगा इसे अभिभावक समझना ही नहीं चाहते हा ये शिकायत अवश्य करते है की आजकल के बच्चो के पास माता -पिता को देने के लिए समय नहीं है .किन्तु ये नहीं समझना चाहते की जिन मशीनों की व् गलत खान -पान की आदत उन्होंने अपने बच्चो को डलवाई है वे आदते बच्चो से आँखों की रौशनी ,सुनने की शक्ति  को छीन रही है .नर्व की समस्या को जन्म दे रही है .अगर समय रहते नहीं चेते तो आने वाला समय बच्चो को एक कमजोर शारीर के साथ अंधकारमय भविष्य अवश्य देंगा वो भविष्य जिसमे न बचपन होगा न जवानी कुन्तु स्थायी बुढ़ापा जरुर होंगा .


3 comments:

  1. सार्थक मुद्दा उठाया है ... आज कल माँ अपने आराम का ज्यादा ख़याल करती हैं .. थोडा ध्यान रखें खाने और टी वी आदि देखने पर तो स्थिति सुधारी जा सकती है ..



    कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

    वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
    डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

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  2. It's really very critical problem now a days but what is the solution as we can look today's world it's actually totally depend on finance.....so its also a need that both should be earning members in the family....but the result is lake of time 4 our chioldrens.

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  3. प्रश्न यह नहीं है कि बच्चों को क्या परोसा जा रहा है? बल्कि प्रश्न इस बात का है कि हम बच्चों को क्या परोसना चाहते हैं? वास्तव में हम कुदरत के ऊपर छोड़ देते हैं. बच्चे पालना एक सामान्य कृत नहीं है. बच्चे पालना एक बहुत कठिन विज्ञान है. क्या आपको पता है? कि बच्चे के दिमाग का ९०% भाग ३ वर्ष की आयु तक विकिसित हो जाता है. अतः गर्भन के पश्चात ३ वर्ष तक बच्चा तथा बच्चे की माँ के ऊपर जो भी जुल्म ढाते हैं वह सब उसके विकाश को प्रभावित करते हैं. अतः यह महत्व पूर्ण है कि बच्चे क्या परोसा जा रहा है परन्तु उससे भी अधिक यह महत्व पूर्ण है कि हम बच्चे को क्या परोस रहे हैं.

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